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एक परिशीलन
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मिलेंगे, जिन्होंने जैन दर्शन का गहराई से अनुशीलन- परिशीलन किया हो । यही कारण है कि जैन दर्शन और योग - शास्त्र में बहुत साम्यता होने पर भी वैदिक एवं जैन विचारक इससे अपरिचित से रहे हैं । योग - शास्त्र और जैन दर्शन में समानता तीन तरह की है — १. शब्द की, २ विषय की, और ३. प्रक्रिया की ।
१. शब्द साम्य
योग-सूत्र एवं उसके भाष्य में ऐसे है, जो जैनेतर दर्शनों में प्रयुक्त नहीं हैं, में उनका विशेष रूप से सवितर्क - सविचार-निर्विचार २,
प्रयोग
.२
अनेक शब्दों का प्रयोग मिलता परन्तु जैन दर्शन एवं जैनागमों हुआ है । जैसे – भवप्रत्यय ', कृत- कारित अनुमोदित ४,
१ भवप्रत्ययो विदेहप्रकृततिलयानाम् । भवप्रत्ययो नारक - देवानाम् । सूत्र, ७; स्थानांग सूत्र २, १,७१ एकाश्रये सवितर्के पूर्वे; तत्र सविचारं द्वितीयम । - तत्त्वार्थ सूत्र, ६, ( वृत्ति) ४, १,२४७
तत्र शब्दार्थ - ज्ञान - विकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः; स्मृतिपरिशु द्वौ स्वरूपशून्येवार्थमा निर्भासा निर्वितर्का; एतयैव सविचारा निविचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता ।
- पातञ्जल योग-सूत्र १, ४२-४४. जैनागमों में मुनि के पाँच यमों के लिए महाव्रत शब्द का प्रयोग हुआ है । - देखें स्थानांग सूत्र, ५, १, ३८६, तत्त्वार्थ सूत्र, ७,२. यही शब्द योग- शास्त्र में भी उसी अर्थ में श्राया है ।
— योग-सूत्र २,३१.
महाव्रत 3,
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- योग-सूत्र १,१६ - तत्त्वार्थ सूत्र, १, २१; नन्दी
प्रथमम् (भाष्य ) श्रविचारं ४३-४४ ; स्थानांग सूत्र,
४.
ये शब्द जिस भाव के लिए योग-शास्त्र, २, ३१ में प्रयुक्त हैं, उसी भाव में जैनागम में भी मिलते हैं, जैनागमों में अनुमोदित के स्थान में प्रायः श्रतुभित शब्द प्रयुक्त हुआ है ।
- तत्त्वार्थ ६, ६; दशवैकालिक अध्ययन ४.
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