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"अष्टम प्रकाश
२३५ इसके पश्चात् वह वीतराग, वीतद्वेष, निर्मोह, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, देवों द्वारा पूज्य, समवसरण में स्थित होकर धर्मदेशना करते हुए तथा परमात्मा से अभिन्न आत्मा का ध्यान करता है। इस तरह का ध्यान करने वाला ध्याता समस्त कालुष्य से रहित होकर परमात्मत्व को प्राप्त कर लेता है।
यद्वा मन्त्राधिपं धीमानूर्वाधोरेफ-संयुतम् । । कलाबिन्दु - समाक्रान्तमनाहतयुतं तथा ॥ १८ ॥ कनकाम्भोज-गर्भस्थं सान्द्रचन्द्रांशुनिर्मलम् । गगने संचरन्तं च व्याप्नुवन्तं दिशः स्मरेत् ।। १६ ॥ ततो विशन्तं वक्त्राब्जे भ्रमन्तं भ्रू-लतान्तरे । स्फूरन्तं नेत्रपत्रेषु तिष्ठन्तं भालमण्डले ॥२०॥ निर्यान्तं तालुरन्ध्रेण स्रवन्तं च सुधारसम् । स्पर्धमानं शशांकेन स्फुरन्तं ज्योतिरन्तरे ॥ २१ ॥ सञ्चरन्तं नभोभागे योजयन्तं शिवश्रिया।
सर्वावयव-सम्पूर्ण कुम्भकेन विचिन्तयेत् ॥ २२ ॥ प्रबुद्ध-योगी को ऊपर और नीचे 'रेफ' से युक्त, कला एवं बिन्दु से आक्रान्त, अनाहत सहित, स्वर्ण-कमल के गर्भ में स्थित, चन्द्रमा की सघन किरणों के समान निर्मल, आकाश में संचरण करते हुए और समस्त दिशात्रों को व्याप्त करते हुए मंत्रराज 'अहं' का चिन्तन करना चाहिए । तदनन्तर मुखकमल में प्रवेश करते हुए भ्र-लता में भ्रमण करते हुए, नेत्र-पत्रों में स्फुरायमान होते हुए, भाल-मंडल में स्थित होते हुए, तालु के रंध्र से बाहर निकलते हुए, अमृत-रस को बरसाते हुए, उज्ज्वलता में चन्द्रमा के साथ स्पर्धा करते हुए, ज्योतिर्मण्डल में चमकते हुए, नभोभाग में संचार करते हुए और मोक्ष-लक्ष्मी के साथ मिलाप कराते हुए, सर्व अवयवों से परिपूर्ण मंत्राधिराज का कुंभक के द्वारा चिन्तन करना चाहिए।
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