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________________ २१० योग- शास्त्र ऐसा करने से उसका इष्ट कार्य सिद्ध होता है, उसकी अभिलाषा परिपूर्ण होती है । वशीकरण श्रासने शयने वापि पूर्णांग विनिवेशिताः । वशोभवन्ति कामिन्यो न कार्मणमतः परम् ॥ २४२ ॥ अपने आसन या शयन के समय अपने पूर्णांग की ओर स्त्रियों को बैठाने से वे सब उसके वश में हो जाती हैं। दुनिया में इससे उत्तम अन्य कोई कामण - जादू-टोना नहीं है । अरि-चौराधमर्णाद्या अन्येऽप्युत्पातविग्रहाः । कर्त्तव्याः खलु रिक्तांगे जयलाभसुखार्थिभिः ।। २४३ ॥ जो व्यक्ति विजय, लाभ और सुख के अभिलाषी हैं, उन्हें चाहिए कि वे शत्रु को, चोर को, कर्जदार को तथा श्रन्य. उत्पात्त, विग्रह श्रादि करके दुःख पहुँचाने वालों को अपने रिक्तांग की ओर रखें, अर्थात् जिस ओर की नासिका में से वायु न बह रही हो उस ओर बैठाएँ । ऐसा करने से वे दुःख नहीं दे सकेंगे । इसका तात्पर्य यह है कि उत्पात करने बाले दुष्ट व्यक्तियों को सदा रिक्त अंग की ओर रखना चाहिए । • प्रतिपक्ष - प्रहारेभ्यः पूर्णांगं योऽभिरक्षति । न तस्य रिपुभिः शक्तिर्बलिष्ठैरपि हन्यते ॥ २४४ ॥ जो पुरुष शत्रु के प्रहारों से अपने पूर्णांग की रक्षा करता है, अत्यन्त बलवान् शत्रु भी उसकी शक्ति का विनाश नहीं कर सकता । पुत्र-पुत्रों का जन्म वहीं नासिकां वार्मा दक्षिणां वाऽभिसंस्थितः । पृच्छेद्यदि तदा पुत्रो रिक्तायां तु सुता भवेत् ॥ २४५ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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