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________________ योग- शास्त्र पञ्चविंशत्यहं चैवं वायौ मासत्रये मृतिः । मासद्वये पुनर्मृत्युः षड्विंशतिदिनानुगे ।। ११२ ।। इसी प्रकार पच्चीस दिन तक वायु चलता रहे, तो तीन महीने में और छब्बीस दिन तक चलता रहे, तो दो महीने में मृत्यु होती है । सप्तविंशत्यवहे नाशो मासेन जायते । मासार्धेन पुनर्मृत्युरंष्टाविंशत्यहानुगे ।। ११३ ।। १८० इसी तरह सत्ताईस दिन तक वायु चलता रहे, तो एक महीने में और अट्ठाईस दिन तक चलता रहे, तो पन्द्रह दिन में ही मृत्यु होती है । एकोनत्रिंशदहगे मृतिः स्याद्दशमेऽहनि । त्रिंशद्दिनीचरे तु स्यात्पञ्चत्वं पञ्चमे दिने ॥ ११४ ॥ इसी तरह उनतीस दिन तक एक ही सूर्य - नाड़ी में वायु चलता रहे, तो दसवें दिन और तीस दिन तक चलता रहे, तो पाँचवें दिन मृत्यु होती है । एकत्रिंशदहचरे वायौ मृत्युदिनत्रये । द्वितीयदिवसे नाशो द्वात्रिंशदहवाहिनि ।। ११५ ।। इसी प्रकार इकत्तीस दिन तक वायु चलता रहे, तो तीन दिन में और बत्तीस दिन तक चलता रहे, तो दूसरे दिन ही मृत्यु होती है । पञ्चता । त्रयस्त्रिश - दहचरे त्वेकाहेनापि एवं यदीन्दुनाड्यां स्यात्तदा व्याध्यादिकं दिशेत् ॥ ११६ ॥ इस तरह तेतीस दिन तक लगातार सूर्य नाड़ी में ही पवन बहता रहे, तो एक ही दिन में मृत्यु हो जाती है । जिस प्रकार लगातार सूर्य नाड़ी के चलने का फल मरण बतलाया है, उसी प्रकार यदि चन्द्रनाड़ी में पवन चलता रहे, तो उसका फल मृत्यु नहीं, किन्तु उतने ही काल में व्याधि, मित्रनाश महान् भय की प्राप्ति, देश- त्याग, धन-नाश, पुत्र-नाश, दुर्भिक्ष आदि समझना चाहिए । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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