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________________ ५ योग-शास्त्र इडा च पिंगला चैव सुषुम्णा चेति नाडिकाः । शशि-सूर्य-शिव-स्थानं वाम-दक्षिण-मध्यगाः ॥ ६१ ॥ पीयूषमिव वर्षन्ती सर्वगात्रेषु सर्वदा। वामाऽमृतमयी नाडी सम्मताऽभीष्टसूचिका ।। ६२ ।। वहन्त्यनिष्ट-शंसित्री संही .दक्षिणा पूनः । . सुषुम्णा तु भवेत्सिद्धि-निर्वाण-फलकारणम् ।। ६३ ।। . बांयीं तरफ की नाड़ी इड़ा कहलाती है और उसमें चन्द्र का स्थान है । दाहिनी ओर की नाड़ी-पिंगला में सूर्य का स्थान है और दोनों के मध्य में स्थित नाड़ी में-जो सुषुम्णा कहलाती है, शिवस्थान-मोक्ष स्थान है। शरीर के समस्त भागों में सदा अमृत-वर्षा करने वाली अमृतमय बांयीं नाड़ी समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाली मानी गई है। बहती हुई दाहिनी नाड़ी अनिष्ट को सूचित करने वाली और कार्य का विघात करने वाली होती है। सुषुम्णा नाड़ी अणिमा आदि पाठ महासिद्धियों का तथा मोक्ष रूप फल का कारण होती है। टिप्पण-सुषुम्णा नाड़ी में मोक्ष का स्थान है और अणिमा आदि सिद्धियों का कारण है, इस विधान का आशय यह है कि इस नाड़ी में ध्यान करने से लम्बे समय तक ध्यान-सन्तति चालू रहती है और इस कारण थोड़े समय में भी अधिक कर्मों का क्षय किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, सुषुम्णा नाड़ी में वायु की गति बहुत मंद होती है, अतः मन सरलता से स्थिर हो जाता है । मन एवं पवन की स्थिरता होने पर संयम की साधना भी सरल हो जाती है। धारणा, ध्यान और समाधि को एक ही स्थल पर करना संयम है और यह संयम सिद्धियों का कारण है । इसी अभिप्राय से सुषुम्णा नाड़ी को मोक्ष एवं सिद्धियों का कारण बतलाया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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