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________________ पंचम प्रकाश भाले तद्रोगनाशाय, क्रोधस्योपशमाय च । ब्रह्म- रन्ध्रे च सिद्धानां साक्षाद्दर्शन - हेतवे ।। ३५ ।। पैर के अंगूठे में, एड़ी में और गुल्फ — टकने में, जंघा में, घुटने में, ऊरु में, गुदा में और लिंग में— अनुक्रम से वायु को धारण कर रखने से शीघ्र गति और बल की प्राप्ति होती है । नाभि में वायु को धारण करने से ज्वर दूर हो जाता है, जठर में धारण करने से मलशुद्धि होने से शरीर शुद्ध होता है, हृदय में धारण करने से ज्ञान की वृद्धि होती है तथा कूर्म - नाड़ी में धारण करने से रोग और वृद्धावस्था का नाश होता है— वृद्धावस्था में भी शरीर में जवानों जैसी स्फति बनी रहती है । १६१ कंठ में वायु को धारण करने से भूख-प्यास नहीं लगती और यदि क्षुधा पिपासा लगी हो तो शान्त जाती है । जीभ के अग्रभाग पर वायु का निरोध करने से रस- ज्ञान की वृद्धि होती है । नासिका के अग्रभाग : पर रोकने से गंध का ज्ञान होता है । चक्षु में धारण करने से रूप-ज्ञान की वृद्धि होती है । कपाल - मस्तिष्क में वायु को धारण करने से कपाल - मस्तिष्क सम्बन्धी रोगों का नाश होता है और क्रोध का उपशम होता है । ब्रह्मरन्ध्र में वायु को रोकने से साक्षात् सिद्धों के दर्शन होते हैं । पवन की चेष्टा ११ अभ्यस्य धारणामेवं सिद्धीनां कारणं परम् । चेष्टितं पवमानस्य जानीयाद् गतसंशयः ॥ ३६ ॥ धारणा सिद्धियों का परम कारण है । उसका इस प्रकार अभ्यास करके फिर निश्शंक होकर पवन की चेष्टा को जानने का प्रयत्न करे । Jain Education International नाभेनष्कामतश्चारं हृन्मध्ये नयतो गतिम् । तिष्ठतो द्वादशान्ते तु विन्द्यात्स्थानं नभस्वतः ॥ ३७ ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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