________________
योग- शास्त्र
समत्व की जागृति के बिना ध्यान नहीं हो सकता और ध्यान के बिना निश्चल समत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती । इस प्रकार दोनों एक दूसरे के कारण हैं ।
ध्यान का स्वरूप
१४४
मुहूर्त्तान्तिर्मनः स्थेयं ध्यानं छद्मस्थ योगिनाम् । धर्म्यं शुक्लं च तद् द्व ेधा, योगरोधस्त्वयोगिनाम् ।। ११५ ।। ध्यान करने वाले दो प्रकार के होते हैं— सयोगी और प्रयोगी । सयोगी ध्याता भी दो प्रकार के हैं-छद्मस्थ और केवली । एक प्रालम्बन में एक मुहूर्त - ४८ मिनिट पर्यन्त मन का स्थिर रहना छद्मस्थ योगियों का ध्यान कहलाता है । वह धर्म ध्यान और शुक्ल व्यान के भेद से दो प्रकार का है । योगियों का ध्यान योग - मन, वचन, काय का निरोध होना है । और सयोगी केवली में योग का निरोध करते समय ही ध्यान होता है, अतः वह प्रयोगियों के ध्यान के समान ही है ।
मुहूर्तात्परतश्चिन्ता यद्वा ध्यानान्तरं भवेत् ।
वह्वर्थसंक्रमे तु स्याद्दीर्घाऽपि ध्यान - सन्ततिः ॥ ११६ ॥
एक मुहूर्त ध्यान में व्यतीत हो जाने के पश्चात् ध्यान स्थिर नहीं रहता, फिर या तो वह चिन्तन कहलाएगा या आलम्बन की भिन्नता से दूसरा ध्यान कहलाएगा। अभिप्राय यह है कि ध्याता एक ही आलम्बन में एक मुहूर्त्त से अधिक स्थिर नहीं रह सकता । हाँ, एक के पश्चात् दूसरे और दूसरे के पश्चात् तीसरे श्रालम्बन को ग्रहण करने से ध्यान की परम्परा लम्बी-मुहूर्त्त से अधिक भी चल सकती है । परन्तु, एक ही ध्यान मुहूर्त से अधिक काल तक स्थिर नहीं रह सकता ।
ध्यान की पोषक भावनाएँ
Jain Education International
मैत्री- प्रमोद - कारुण्य- माध्यस्थानि नियोजयेत् ।
धर्म- ध्यानमुपस्तु तद्धितस्य रसायनम् ॥। ११७ ।।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org