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चतुर्थ प्रकाश
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२. प्रौनोदर्य-पुरुष का बत्तीस कवल और स्त्री का अट्ठाईस कवल
पूरा आहार होता है । उससे कम भोजन करना । ३. वृत्ति-संक्षेप-आहार सम्बन्धी अनेक प्रकार की प्रतिज्ञाएँ
करके वृत्ति का संक्षेप करना। ४. रस-परित्याग-मद्य, मांस, मधु, मक्खन, दूध, दही, घृत,
तेल, गुड़ आदि विशिष्ट रस वाले मादक
पदार्थों का त्याग करना। ५. काय-क्लेश—देह का दमन करना । ६. परिसलीनता-संयम में बाधक स्थान में न रहना और मन,
वचन और काम का गोपन करना। प्राभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का होता है :१. प्रायश्चित्त-ग्रहण किए हुए व्रत में भूल या प्रमाद से दोष लग
जाने पर शास्त्रोक्त विधि से उसकी शुद्धि करना । २. वैयावृत्य-सेवा-शुश्रूषा करना। ३. स्वाध्याय-संयम-जीवन का उत्थान करने के लिए शास्त्रों
का पठन, चिन्तन आदि करना । ४. विनय-विशिष्ट ज्ञानी एवं चारित्रनिष्ठ महापुरुषों के प्रति
बहुमान का भाव रखना। . . ५. व्युत्सर्ग-त्याज्य वस्तु और कषाय आदि भाव का त्याग करना।
६. ध्यान-प्रात-रौद्र ध्यान का त्याग करके धर्म-ध्यान और ..
शुक्ल-ध्यान में मन को संलग्न कर देना। दीप्यमाने तपोवह्नौ, बाह्ये चाभ्यन्तरेऽपि च । . यमी जरति कर्माणि दुर्जराण्यपि तत्क्षणात् ।। ६१ ।।
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