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योग-शास्त्र -
किया जा सकता-भले ही वह लौकिक कार्य हो. या पारलौकिक, सांसारिक हो या आध्यात्मिक । यदि किसी व्यक्ति को एक मकान बनाना है, तो मकान तैयार करने के पूर्व उसे उसके स्वरूप, उसमें लगने वाली सामग्री और उसमें काम आने वाले साधनों एवं उस साधन-सामग्री के उपयोग करने के ढंग का ज्ञान करना आवश्यक है। और तत्सम्बन्धी पूरी जानकारी करने के बाद उसके अनुरूप क्रिया की जाती है, परिश्रम किया जाता है। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक साधना के द्वारा आत्मा को कर्म-बन्धन से पूर्णतया मुक्त करने के अभिलाषी साधक के लिए भी यह आवश्यक है कि वह सर्वप्रथम आत्मा के स्वरूप, प्रात्म के साथ कर्मों के बन्धन के कारण, बन्ध को रोकने तथा आबद्ध कर्मों को तोड़ने के साधनों का सम्यक बोध प्राप्त करे। उसके पश्चात् वह तदनुसार क्रिया करे, उस ज्ञान को आचरण का रूप दे। इस तरह ज्ञान और क्रिया के सुमेल से साध्य की सिद्धि हो सकती है, अन्यथा नहीं। ___ योग-साधना भी एक क्रिया है। इस साधना में प्रवृत्त होने, संलग्न होने के पूर्व साधक आत्मा, योग, साधना आदि आध्यात्मिक एवं तात्विक विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है। वह योग के हर पहलू पर गहराई से सोचता-विचारता है। परन्तु चिन्तन का एक रूप न होने के कारणयोग एवं उसके फलस्वरूप प्राप्त होने वाले मोक्ष में एकरूपता होने पर भी, उनके द्वारा प्ररूपित योग एवं मुक्ति के स्वरूप में भिन्नता परिलक्षित होती है। क्योंकि, वस्तु अनेक पर्यायों से युक्त है और उसका चिन्तन करने वाले साधक उसके किसी पर्याय विशेष को लेकर उस पर चिन्तन करते हैं, अतः उनके चिन्तन में अन्तर रहना स्वाभाविक है। इसी विचार विभिन्नता के कारण योग-साधना भी विभिन्न धाराओं में प्रवहमान दिखाई देती है।
___ साधना का मूल केन्द्र आत्मा है। अतः योग के चिन्तन का मुख्य विषय भी प्रात्मा है । और पात्म स्वरूप के सम्बन्ध में भी सभी भारतीय
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