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________________ योग-शास्त्र यम-नियम आदि के द्वारा मन की रक्षा करने पर भी रागादि पिशाच कोई न कोई प्रमाद रूप बहाना ढूंढ कर बार-बार योगियों के मन को छलते रहते हैं । अंधे का हाथ पकड़ कर चलने वाले अंधे को वह कुएँ में गिरा देता है, उसी प्रकार राग-द्वेष आदि से जिसका ज्ञान नष्ट हो गया है, ऐसा मन भी अंधा होकर मनुष्य को नरक- कूप में गिरा देता है । १२६ अतः निर्वाण पद प्राप्त करने की अभिलाषा रखने वाले साधक को समभाव के द्वारा, सावधान होकर राग-द्वेष रूपी शत्रुनों को जीतना चाहिए | अभिप्राय यह है कि इन्द्रियों को जीतने के लिए मन को जीतना चाहिए और मन को जीतने के लिए राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करनी चाहिए | राग - विजय का मार्ग अमन्दानन्द-जनने साम्यवारिणि मज्जताम् । जायते सहसा पुंसां राग-द्वेष-मल-क्षयः ॥ ५० ॥ तीव्र आनन्द को उत्पन्न करने वाले समभाव रूपी जल में अवगाहन करने वाले पुरुषों का राग-द्वेष रूपी मल सहसा ही नष्ट हो जाता है । प्रणिहन्ति क्षणार्धेन, साम्यमालम्ब्य कर्म तत् । यन्न हन्यान्नरस्तीव्र- तपसा जन्म कोटिभिः ॥ ५१ ॥ समता-भाव का अवलम्बन करने से अन्तर्मुहूर्त में मनुष्य जिन कर्मों का विनाश कर डालता है, वे तीव्र तपश्चर्या से करोड़ों जन्मों में भी नहीं हो सकते। कर्म जीवं च संश्लिष्टं परिज्ञातात्म-निश्चयः । विभिन्नीकुरुते साधुः सामायिक-शलाकया ।। ५२ ।। जैसे आपस में चिपकी हुई वस्तुएँ बांस आदि की सलाई से पृथक् की जाती हैं, उसी प्रकार परस्पर बद्ध-कर्म और जीव को साधु समभाव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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