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योग-शास्त्र
अतः मन का निरोध किए बिना जो मनुष्य योगी होने का निश्चय करता है, वह उसी प्रकार हँसी का पात्र बनता है जैसे कोई पंगु पुरुष एक गांव से दूसरे गाँव जाने की इच्छा करके हास्यास्पद बनता है।
मन का निरोध होने पर कर्म भी पूरी तरह से रुक जाते हैं, क्योंकि कर्म का आस्रव मन के अधीन है। किन्तु, जो पुरुष मन का निरोध नहीं कर पाता है, उसके कर्मों की अभिवृद्धि होती रहती है।
अतएव जो मनुष्य कर्मों से अपनी मुक्ति चाहते हैं, उन्हें समग्र विश्व में भटकने वाले लंपट मन को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए।
दीपिका खल्वनिर्वाणा निर्वाण-पथ-दर्शिनी। एकैव मनसः शुद्धिः समाम्नाता मनीषिभिः ।। ४० ।। सत्यां हि मनसः शुद्धो सन्त्यसन्तोऽपि यद्गुणाः । सन्तोऽप्यसत्यां नो सन्ति, सैव कार्या बुधैस्ततः ॥ ४१ ॥ मनः शुद्धिमविभ्राणा ये तपस्यन्ति मुक्तये । त्यक्त्वा नावं भुजाभ्यां ते तितीर्षन्ति महार्णवम् ॥ ४२ ।। तपस्विनो मनः शुद्धि-विनाभूतस्य सर्वथा । ध्यानं खलु मुधा चक्षुर्विकलस्येव दर्पणः ।। ४३ ॥ तदवश्यं मनःशुद्धिः कर्त्तव्या सिद्धिमिच्छता । तपः श्रुत-यमप्रायः किमन्यैः काय-दण्डनैः ॥ ४४ ॥ मनः शुद्धय व कर्तव्यो राग-द्वष-विनिर्जयः ।
कालुष्यं येन हित्वाऽत्मा स्वस्वरूपेऽवतिष्ठते । ४५ ।। यम-नियम आदि से रहित अकेली मन-शुद्धि भी वह दीपक है, जो कभी बुझता नहीं है और जो सदा निर्वाण का पथ प्रदर्शित करता है, मनीषी जनों की ऐसी मान्यता है । __यदि मन की शुद्धि हो गई है, तो समझ लीजिए कि अविद्यमान
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