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________________ योग शास्त्र निपतन् मत्त - मातङ्ग - कपोले गन्ध-लोलुपः। कर्णतालतलाघातान्मृत्युमाप्नोति षट्पदः ॥ ३०॥ कनकच्छेद - संकाश - शिखालोक - विमोहितः।। रभसेन पतन् दीपे शलभो लभते मृतिम् ॥ ३१ ॥ हरिणो हारिणीं गीतिमाकर्णयिसुमुद्धरः। .: आकर्णाकृष्टचापस्य याति व्याधस्य वेध्यताम् ॥ ३२ ॥ एवं विषय एकैकः पञ्चत्वाय निषेवितः। कथं. हि युगपत् पञ्च - पञ्चत्वाय भवन्ति न ।। ३३ ।। हथिनी के स्पर्श के सुख की लालसा को प्राप्त करने के लिए सूड़ फैलाने वाला हाथी शीघ्र ही स्तंभ के बन्धन का क्लेश प्राप्त करता है। अगाध जल में विचरण करने वाली मछली जाल में लगे हुए लोहे के कांटे पर रहे हुए मांस को खाने के लिए उद्यत होते ही मच्छीमार के हाथ लग जाती है। गंध में आसक्त होकर भ्रमर मदोन्मत्त हाथी के कपोल पर बैठता है और उसके कान की फटकार से मृत्यु का शिकार हो जाता है। स्वर्ण के तेज के समान चमकती हुई दीपक की शिखा के प्रकाश पर मुग्ध होकर पतंग सपाटे के साथ दीपक पर गिरता है और काल का ग्रास बन जाता है। मनोहर गीत को सुनने के लिए उत्कंठित हिरण कान पर्यन्त खींचे हुए व्याध के वाण के द्वारा मृत्यु को प्राप्त होता है। ___ इस प्रकार स्पर्शन, रसना, नासिका, चक्षु और कर्ण, इन पाँच इन्द्रियों में से एक-एक इन्द्रिय का विषय भी जब मृत्यु का कारण बनता है, तो एक साथ पाँचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन मृत्यु का कारण क्यों नहीं होगा ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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