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________________ ११२ योग-शास्त्र क्रोधादि का त्याग करके कषायों को कृश पतला करे और संयम को स्वीकार करे । संलेखना करने के लिए अरिहन्तों के जन्म-कल्याणक, दीक्षा कल्याणक, ज्ञान-कल्याणक या निर्वाण कल्याणक के स्थलों पर पहुँच जाए । कल्याणक भूमि समीप में न हो तो घर पर या वन में, जीव-जन्तु से रहित शान्तएकान्त भूमि में संलेखना करे । सर्वप्रथम प्रशन, पान, खादिम, स्वादिम - यह चार प्रकार का श्राहार त्याग कर नमस्कार मंत्र का जाप करने में तत्पर हो । फिर ज्ञानादि की निरतिचार श्राराधना करे और अरिहन्त का अवलम्बन रखे । श्रादि चार शरणों उस समय श्रावक के चित्त में न इहलोक सम्बन्धी कामना रहे और न परलोक सम्बन्धी । उसे न जीवित रहने की इच्छा हो और न मरने की । उसे निदान युक्त की जाने वाली साधना के लौकिक फल की लिप्सा भी न रहे । वह पूरी तरह निष्काम भाव होकर समाधि रूपी सुधा से सिंचित बना रहे अर्थात् समाधि भाव में संलग्न रहे । वह परीषहों और उपसर्गों से भयभीत न हो तथा जिन- भगवान् की भक्ति में तन्मय रहे । इस प्रकार श्रानन्द श्रावक की भाँति समाधिमरण को प्राप्त करे । श्राराधना का फल प्राप्तः स कल्पेष्विन्द्रत्वमन्यद्वा स्थानमुत्तमम् । मोदतेऽनुत्तर- प्राज्य - पुण्य - संभारभाक् ततः ।। १५३।। च्युत्वोत्पद्य मनुष्येषु, भुक्त्वा भोगान् सुदुर्लभान् । विरक्तो मुक्तिमाप्नोति शुद्धात्मान्तर्भवाष्टकम् || १५४ || इस प्रकार श्रावक-धर्म की आराधना करने वाला गृहस्थ देवलोक में इन्द्र पद या अन्य किसी श्रेष्ठ पद को प्राप्त करता है । वहाँ जगत् के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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