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________________ १०६ योग-शास्त्र संध्या समय पुनः देव-गुरु की उपासना करके प्रतिक्रमण आदि षट् आवश्यक क्रिया करे और फिर उत्तम स्वाध्याय करे। न्याय्ये काले ततो देव-गुरुस्मृति-पवित्रितः। निद्रामल्पामुपासीत, प्रायेणाब्रह्म-वर्जकः ॥ १३०॥ . स्वाध्याय आदि · धर्म-ध्यान करने के बाद उचित समय होने पर देव और गुरु के स्मरण से पवित्र बना हया और प्रायः प्रब्रह्मचर्य का त्यागी या नियमित जीवन बिताने वाला श्रावक अल्प निद्रा ले। निद्राच्छेदे योषिदङ्गसतत्त्वं परिचिन्तयेत् । स्थूलभद्रादिसाधूनां तन्निवृत्ति परामृशन् ।। १३१ ॥ रात्रि के लगभग व्यतीत हो जाने पर निद्रा त्याग करने के बाद स्थूलभद्र आदि साधुनों ने किस प्रकार काम-वासना का त्याग किया था, इसका विचार करते हुए काम-वासना के निस्सार, अपवित्र, दुःखद एवं भयावने स्वरूप का चिन्तन करे । स्त्री-शरीर की अशुचिता यकृच्छकृन्मल-श्लेष्म-मज्जास्थि-परिपूरिताः। स्नायुस्यूता वही रम्याः स्त्रियश्चर्मप्रसेविकाः।। १३२ ।। वहिरन्तविपर्यासः स्त्री-शरीरस्य चेद् भवेत् । तस्मैव कामुकः कुर्याद् गृध्रगोमायुगोपनम् ।। १३३ ।। स्त्री-शस्त्रेणापि चेत्कामो जगदेतज्जिगीषति । तुच्छपिच्छमयं शस्त्रं किं नादत्त स मूढधीः ॥ १३४ ॥ स्त्रियों के शरीर निरन्तर विष्ठा, मल, श्लेष्म, मजा और हाड़ों से परिपूर्ण हैं, अतः वे केवल बाहर से ही स्नायु से सिली हुई धोंकनी के समान रमणीय प्रतीत होते हैं। स्त्री-शरीर में अगर उलट-फेर कर दिया जाए, अर्थात् भीतर का रूप बाहर और बाहर का रूप अन्दर कर दिया जाए, तो कामी पुरुष For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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