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________________ १८ योग-शास्त्र १. इंगाल-कर्म अंगार-भ्राष्ट्रकरणं, कुम्भायःस्वर्णकारिता। ठठारत्वेष्टकापाकाविति ह्यंगारजीविका ।। १०१ ।। . लकड़ियों के कोयले बनाने का, भड़भूजे का, कुंभार का, लोहार का, सुनार का, ठठेरे-कसेरे का और ईंट पकाने का धंधा करना 'अंगार-कर्म' कहलाता है। २. वन-कर्म छिन्नाच्छिन्न-वन-पत्र-प्रसून - फल - विक्रयः । कणानां दलनात्पेषाद् वृत्तिश्च वन-जीविका ॥ १०२ ॥ . वनस्पतियों के छिन्न या अच्छिन्न पत्तों, फूलों या फलों को बेचना तथा अनाज को दलने या पीसने का धंधा करना 'वन-जीविका' है।। ३. शकट-कर्म शकटानां तदङ्गानां, घटनं खेटनं तथा । विक्रयश्चेति शकट-जीविका परिकीर्तिता ॥ १०३ ॥ छकड़ा-गाड़ी आदि या उनके पहिया आदि अंगों को बनानेबनवाने, चलाने तथा बेचने का धंधा करना 'शकट-जीविका' है। ४. भाटक-कर्म शकटोक्षलुलायोष्ट्र - खराश्वतर - वाजिनाम् । भारस्य वाहनाद् वृत्तिर्भवेद्-भाटक-जीविका ॥ १०४ ॥ गाड़ी, बैल, भैंसा, ऊँट, गधा, खच्चर और घोड़े आदि पर भार लादने की अर्थात् इनसे भाड़ा-किराया कमाकर आजीविका चलाना 'भाटक-जीविका' है। ५. स्फोट-कर्म . सरः कूपादि-खनन-शिला-कुट्टन-कर्मभिः । पृथिव्यारम्भ-सम्भूतैर्जीवनं स्फीट-जीविका ॥ १०५ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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