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________________ ६२ योग- शास्त्र से बचने के लिए दिव्रत का विधान किया जा चुका है, जिसमें विभिन्न दिशाओं में आने-जाने, व्यापार करने आदि की जीवन भर के लिए. सीमा निर्धारित कर ली जाती । परन्तु उस निर्धारित सीमा में हमेशा आना-जाना नहीं होता, अतः एक दिन, प्रहर, घंटा आदि तक उस सीमा का संकोच कर लेना 'देशावकाशिक व्रत' कहलाता है । इस व्रत की उपयोगिता इच्छाओं को सीमित करने में है । पोषध - व्रत चतुष्पव्र्व्यां चतुर्थादि, कुव्यापारनिषेधतम् । ब्रह्मचर्य - क्रिया-स्नानादित्यागः पोषधव्रतम् ॥ ८५ ॥ अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या, यह चार पर्व दिवस हैं । इनमें उपवास आदि तप करना, पापमय क्रियाओं का त्याग करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना और स्नान आदि शरीर शोभा का त्याग करना 'पोषधव्रत' कहलाता है । गृहिणोऽपि हि धन्यास्ते, पुण्यं ये पोषधव्रतम् । दुष्पालं पालयन्त्येव, यथा स चुलनीपिता ॥ ८६ ॥ वे गृहस्थ भी धन्य हैं जो चुलनीपिता की भाँति, कठिनाई से पालन किये जाने वाले पवित्र पोषधव्रत का पालन करते हैं । श्रतिथि- संविभाग व्रत दानं चतुर्विधाहारपात्राच्छादनसद्मनाम् । अतिथिभ्योऽतिथिसंविभागव्रतमुदीरितम् ॥ ८७ ॥ श्रतिथियों-त - त्यागमय जीवन यापन करने वाले संयमी पुरुषों को चार प्रकार का श्राहार—प्रशन, पान, खादिम, स्वादिम भोजन, पात्र, वस्त्र और मकान देना 'अतिथि संविभाग व्रत' कहलाता है । प्रतिथि-दान का फल पश्य संगमको नाम सम्पदं वत्सपालकः । चमत्कारकरीं प्राप, मुनिदानप्रभावतः ॥ ८८ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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