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________________ योग - शास्त्र यहाँ 'द्विदल' के साथ प्रयुक्त 'आदि' शब्द से निम्नलिखित बात समझनी चाहिए ६.८ १. जिस भोजन पर लीलन - फूलन आ गई हो, वह त्याज्य है । २. दो दिन का वासी दही त्याज्य है । ३. जिसके स्वाभाविक रस, रूप आदि में परिवर्तन हो गया हो ऐसा चलित रस - सड़ा-गला भोजन आदि भी त्याज्य है । उपसंहार जन्तुमिश्रं फलं पुष्पं, पत्रं चान्यदपि त्यजेत् । सन्धानमपि संसक्तं, जिनधर्मपरायणः ।। ७२ ।। जिन धर्म परायण श्रावकों को त्रस - जीवों के संसर्ग वाले फल, पुष्प, पत्र, आचार तथा इसी प्रकार के अन्य पदार्थों का त्याग करना चाहिए । अनर्थ-दण्ड त्याग प्रार्त्तरौद्रमपध्यानं, पाप कर्मोपदेशिता । हिसोपकारिदानं च प्रमादाचरणं तथा ॥ ७३ ॥ 1 जो निरर्थक हिंसा का कारण हो, वह अनर्थ - दण्ड कहलाता है । श्रावक सार्थक हिसा का पूरी तरह त्याग नहीं कर पाता, तथापि उसे निरर्थक हिंसा का त्याग करना चाहिए । इसी उद्देश्य से इस व्रत का विधान किया गया है । : शरीराद्यर्थदण्डस्य, प्रतिपक्षतया स्थितः । योऽनर्थदण्डस्तत्त्यागस्तृतीयं तु गुणव्रतम् ॥ ७४ ॥ अनर्थदण्ड के चार भेद हैं- १. आर्त- रौद्र आदि अपध्यान, २. पाप कर्मोपदेश, ३ . हिंसा के उपकरणों का दान, और ४. प्रमादाचरण । शरीर आदि के निमित्त होने वाली हिंसा अर्थ दण्ड और निरर्थकनिष्प्रयोजन की जाने वाली हिंसा अनर्थ-दण्ड है । इस अनर्थ - दण्ड का त्याग करना गृहस्थ का तीसरा गुणव्रत है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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