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________________ ७४ योग शास्त्र वारुणीपानतो यांति कांति कीर्तिमतिश्रियः । विचित्राश्चित्र-रचना विलुठत्कज्जलादिव ।। १३ ।। भूतार्त्तवन्नरीनति रारटीति सशोकवत् । दाहज्वरातवद्भूमौ सुरापो लोलुठीति च ।। १४ ।। विदधत्यंगशैथिल्यं ग्लापयंतींद्रियाणि च। मूर्छामतुच्छां यच्छन्ति हाला हालाहलोपमा ॥ १५ ॥ विवेकः संयमो ज्ञानं सत्यं शौचं दया क्षमा। . मद्यात्प्रलीयते सर्व तृण्या वह्निकणादिव ॥ १६ ।। दोषाणां कारणं मद्यं मद्यं कारणमापदाम् । रोगातुर इवापथ्यं तस्मान मद्यं विवर्जयेत् ॥ १७ ॥ जिस प्रकार विद्वान और सुन्दर मनुष्य की पत्नी भी दुर्भाग्य के कारण चली जाती है, उसी प्रकार मदिरा पान करने से बुद्धि भी दूर चली जाती है। मदिरा के अधीन हो जाने वाला पापी मनुष्य अपनी माँ के साथ पत्नी जैसा बर्ताव करता है और पत्नी के साथ माता के समान । मद्य के कारण अस्थिर चित्त हो जाने वाला व्यक्ति अपने आपको और दूसरे को नहीं पहिचान पाता। स्वयं नौकर होने पर भी अपने को मालिक समझता है और अपने स्वामी को नौकर की तरह समझता है। कभी-कभी मदिरा पान करने पर खुले मुह मैदान में पड़े रहने वाले शराबी के मुह को गड्ढा समझकर कुत्ते भी पेशाब कर जाते हैं । शराब के नशे में चूर व्यक्ति चौराहे पर भी नग्न होकर सो जाते हैं और हिताहित का ज्ञान न रहने के कारण अपनी गुप्त बातों को भी अनायास ही चाहे जिसके सन्मुख प्रगट कर देते हैं। रंग-बिरंगे चित्रों के ऊपर काजल गिर जाने से जिस प्रकार चित्रों का नाश हो जाता है, उसी प्रकार मद्य-पान करने से कांति, बुद्धि, कीर्ति और लक्ष्मी-सभी का लोप हो जाता हैं । मदिरा पान करने वाला भूत से पीड़ित होने वाले की तरह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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