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________________ तृतीय प्रकाश दिग्-प्रत , श्रावक के पांच अणुव्रतों का विवेचन करने के पश्चात् अब गुणवतों पौर शिक्षाव्रतों का स्पष्टीकरण कर रहे हैं । दशस्वपि कृता दिक्षु यत्र सीमा न लंध्यते । ख्यातं दिग्विरतिरिति प्रथमं तद्गुणवतं ॥ १॥ जिस प्रत में दसों दिशामों में आने-जाने के किये हुए नियम का उलंघन नहीं किया जाता है, वह 'दिग्बत' नामक पहला गुणव्रत कहलाता है। टिप्पण-गुणवत-अहिंसादि पाँच अणुव्रतों को सहायता पहुँचाने वाला या गुण उत्पन्न करने वाला व्रत । दिग्-व्रत पहिले अहिंसा-व्रत को विशेष रूप से पुष्ट करता है। इसी प्रकार पहिले पाँच व्रत, जो कि मूल व्रत हैं उनकी पुष्टि करने वाले ये उत्तर-व्रत कहलाते हैं। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, वायव्य, नैऋत्य, आग्नेय, ऊर्ध्व और अधः- इन दसों दिशाओं में दुनियादारी के व्यापारादि कार्य-वशात् जाने की मर्यादा करना 'दिग-व्रत' है। दिग्-व्रत की उपयोगिता • चराचराणां जीवानां विमर्दन निवर्त्तनात् । तप्तायोगोलकल्पस्य सद्वृत्तं गृहिणोप्यदः ॥२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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