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द्वितीय प्रकाश
द्वितीय
छेप्रो-भेमो-बसणं, पायास-किलेस-भयविवागो य । मरणं धम्मभंसो, अरई अत्थाप्रो सव्वाइं ।। दोससयमूलजालं, पुवरिसिविवज्जियं जई वंतं । अत्थं वहसि अणत्थं, कीस निरत्थं तवं चरसि ।। वह-बंधण-मारणसेहणामो कानो परिग्गहे नत्थि । तं जइ परिग्गहोच्चिय, जइधम्मो तो णणु पवंचो । छेदन, भेदन, व्यसन, श्रम, क्लेश, भय, मृत्यु, धर्म-भ्रष्टता, अरति प्रादि सभी दोष परिग्रह से उत्पन्न होते हैं । परिग्रह सैकड़ों दोषों का . मूल है और पूर्वकालीन महर्षियों द्वारा त्यागा हुआ है। ऐसे वमन किए .
हुए अनर्थकारी अर्थ को यदि तुम धारण करते हो, तो फिर क्यों व्यर्थ तपश्चरण करते हो? जहाँ परिग्नह के प्रति लालसा है, वहाँ तपश्चरण से भी कोई लाभ नहीं होता। परिग्नह से क्या-क्या अनर्थ नहीं होते ? वध, बन्धन, मृत्यु आदि सभी अनर्थों का वह जनक है । जिसके मन में मूर्छा है, उसका यतिधर्म कोरा ढोंग है, दिखावा है । परिग्रह : प्रारंभ का.मूल
संसारमूलमारम्भास्तेषां हेतुः परिग्रहः ।
तस्मादुपासकः कुर्यादल्पमल्पं परिग्रहम् ॥ ११० ॥ जीव हिंसा आदि प्रारम्भ-जन्म-मरण के मूल हैं और उन प्रारम्भों का कारण 'परिग्नह' है-परिग्नह के लिए ही 'पारम्भ' किए जाते हैं । अतः श्रावक को चाहिए कि वह परिग्रह को क्रमशः घटाता जाए।
टिप्परण-ज्यों-ज्यों परिग्रह कम होता जाएगा, त्यों-ज्यों प्रारम्भसमारम्भ भी कम होता जाएगा और ज्यों-ज्यों प्रारम्भ-समारम्भ कम होगा, त्यों-त्यों प्रात्मा की निर्मलता बढ़ती जाएगी। प्रात्मा को निर्मलता बढ़ने से संसार परिभ्रमण घटेगा।
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