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द्वितीय प्रकाश
५६ टिप्पण-संसारी जीव अनादि काल से विषय-वासना के वशीभूत हो रहा है । विषयों की वासना बड़ी प्रबल है। उसमें भी विजातीय का आकर्षण सबसे अधिक प्रबल है । स्त्री का पुरुष के प्रति और पुरुष का स्त्री के प्रति जो जन्मजात आकर्षण है, वह किसी प्रकार दूर हो जाए तो प्रात्म-कल्याण के मार्ग की सब से बड़ी कठिनाई दूर हो जाए। उस आकर्षण को दूर करने के लिए अब्रह्मचर्य के दोषों का चिन्तन करने के साथ उन आकर्षक विजातीय व्यक्तियों के भी दोषों का चिन्तन करना उपयोगी होता है।
जो पुरुष पूर्ण ब्रह्मचर्य के पालन की अभिलाषा रखता है, उसे विषय-सेवन की तथा उसके आकर्षण के केन्द्रभूत स्त्री के दोषों का विचार करना आवश्यक होता है, जिससे उसके प्रति अरुचि हो जाय । इसी दृष्टिकोण से यहाँ स्त्री के दोषों का दिग्दर्शन कराया गया है । ___ यह ध्यान में रखना है कि जैसे ब्रह्मचर्य का इच्छुक पुरुष, स्त्री के दोषों का चिन्तन करना है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य की इच्छुक स्त्री को भी पुरुष के दोषों का विचार करना चाहिए । यहाँ पुरुष को उद्देश्य करके स्त्री के दोषों का उल्लेख किया गया है, किन्तु इसका फलितार्थ यही है कि दोनों एक-दूसरे के दोषों का चिन्तन करके विजातीय आकर्षण को कम या नष्ट करने का प्रयत्न करें। ग्रन्थकार को किसी भी एक पक्ष
को गिराना अभीष्ट नहीं है। : - वेश्या-गमन निषेध
मनस्यन्यद्वचस्यन्यत् क्रियायामन्यदेव हि । यासां साधारणस्त्रीणां, ताः कथं सूखहेतवः ॥ १८ ॥ मांसमिश्रं सुरामिश्रमनेकविट - चुम्बितम् । को वेश्यावदनं चुम्बेदुच्छिष्टमिव भोजनम् ॥ ८६ ॥ अपि प्रदत्तसर्वस्वात्, कामुकात् क्षीणसम्पदः । वासोऽप्याच्छेत्तुमिच्छन्ति गच्छतः पण्यपोषितः ।। ६० ।।
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