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द्वितीय प्रकाश
हिंसा धर्म का ज्ञाता और मुक्ति की अभिलाषा रखने वाला श्रावक स्थावर जीवों की भी निरर्थक हिंसा न करे ।
टिप्पण - पहले त्रस जीवों की हिंसा का निषेध किया गया है, उससे यह न समझ लिया जाय कि स्थावर जीवों की हिंसा के विषय में श्रावक के लिए कोई मर्यादा नहीं है । शरीर - निर्वाह और कुटुम्ब के पालन-पोषण की दृष्टि से ही गृहस्थ के लिए स्थावर जीवों की हिंसा का अनिवार्य निषेध नहीं किया गया है । इससे यह फलित होता है कि जो स्थावर हिंसा शरीर - निर्वाह आदि के लिए श्रावश्यक नहीं है, श्रावक को उसका त्याग करना चाहिए ।
प्राणी प्राणित-लोभेन, यो राज्यमपि मुञ्चति । तद्वधोत्थमघं सर्वोर्वी - दानेऽपि न शाम्यति ||२२||
जो प्राणी अपने जीवन के लोभ से राज्य का भी परित्याग कर देता है, उसके वध से उत्पन्न होने वाला पाप सम्पूर्ण पृथ्वी का दान करने पर भी शान्त नहीं हो सकता ।
टिप्पण -- भूमिदान सब दानों में श्रेष्ठ है, ऐसी लोक मान्यता है । उसी को लक्ष्य करके यहाँ बतलाया गया है कि हिंसा के पाप को समस्त भूमंडल का दान भी नष्ट नहीं कर सकता, अर्थात् हिंसा का पाप सब से बड़ा पाप है ।
हिंसक की निन्दा
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वने निरपराधानां वायुतोयतृणाशिनाम् । निघ्नन् मृगाणां मांसार्थी, विशिष्येत कथं शुनः ? ॥२३॥ दोर्यमाणः कुशेनापि यः स्वांगे हन्त दूयते । निर्मन्तून् स कथं, जन्तूनन्तयेन्निशितायुधैः ||२४|| निर्मातु क्रूरकर्माणः, क्षणिकामात्मनो धृतिम् । समापयन्ति सकलं, जन्मान्यस्य शरीरिणः ||२५||
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