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________________ द्वितीय प्रकाश परिग्रह से युक्त, ब्रह्मचर्य का पालन न करने वाले और मिथ्या उपदेश देने वाले गुरु नहीं है। . जो स्वयं परिग्रह और प्रारम्भ में आसक्त होने से संसार-सागर में डूबे हुए हैं, वे दूसरों को किस प्रकार तार सकते हैं ? जो स्वयं ही दरिद्र है, वह दूसरे को ऐश्वर्यशाली क्या बनाएगा ! धर्म का लक्षण दुर्गतिप्रपतत्प्राणि - धारणाद्धर्म उच्यते । संयमादिदशविधः सर्वज्ञोक्तो विमुक्तये ॥ ११ ॥ - नरक और तिर्यञ्च गति में गिरते हुए जीवो को जो धारण करता है, बचाता है, वह धर्म कहलाता है। सर्वज्ञ के द्वारा कथित, संयम आदि के भेद से दस प्रकार का धर्म ही मोक्ष प्रदान करता है। अपौरुषेयं वचनमसंभवि भवेद्यदि । .. न प्रमाणं भवेद्वाचां, ह्याप्ताधीना प्रमाणता ॥ १२ ॥ अपौरुषेय वचन प्रथम तो असंभव है, फिर भी यदि मान लिया जाय तो वह प्रमाण नहीं हो सकता । क्योंकि वचन की प्रमाणता प्राप्त के अधीन है। . . टिप्पण-संसार में दो प्रकार के मत हैं-१. सर्वज्ञवादी, और २. असर्वज्ञवादी । जो मत किसी न किसी आत्मा का सर्वज्ञ होना स्वीकार करते हैं, वे 'सर्वज्ञवादी' कहलाते हैं। जो सर्वज्ञ का होना असंभव मानते हैं, वे 'असर्वज्ञवादी' कहलाते हैं। सर्वज्ञवादी मत अपने आगम को सर्वज्ञोपदेश मूलक मानकर प्रमाणभूत मान लेते हैं, परन्तु असर्वज्ञवादी मत ऐसा नहीं मान सकते । उनसे पूछा जाता है कि आपके मत में कोई सर्वज्ञ तो हो नहीं सकता, फिर आपके आगम की प्रमाणता का क्या आधार है ? आपका आगम सर्वज्ञकृत नहीं है, तो उसे कैसे प्रमाण माना जाए ? तब वे कहते हैं-हमारा आगम अपौरुषेय है। किसी भी पुरुष के द्वारा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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