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योग- शास्त्र
सच्चे देव को देव समझना, सच्चे गुरु को गुरु मानना और सच्चे धर्म में धर्म बुद्धि होना — सम्यक्त्व कहलाता है ।
मिथ्यात्व का स्वरूप
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अदेवे देवबुद्धिर्या, गुरुधीरगुरौ च या । धर्मे धर्मबुद्धिश्च मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात् ॥ ३ ॥
कुदेव को देव मानना, कुगुरु को गुरु मानना और कुधर्म को धर्म समझना -- मिथ्यात्व है, क्योंकि इस प्रकार की समझ वास्तविकता से विपरीत है ।
टिप्पण - जो वस्तु जैसी है, उसे उसी रूप में मानना - वस्तु वास्तविक स्वरूप पर श्रद्धा करना 'सम्यक्त्व' है और अयथार्थ स्वरूप का श्रद्धान करना 'मिथ्यात्व' है । इस कथन से यह भी प्रतिफलित होता है कि देव को कुदेव, गुरु को कुगुरु और धर्म को अधर्म समझना भी मिथ्यात्व है ।
देव का लक्षरण
सर्वज्ञो जितरागादि- दोषस्त्रैलोक्य- पूजितः ।
यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः ॥ ४ ॥
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जो सर्वज्ञ हो, राग-द्वेष आदि आत्मिक विकारों को जिसने पूर्ण रूप से जीत लिया हो, जो तीनों जगत् के द्वारा पूज्य हो और यथार्थ वस्तुस्वरूप का प्रतिपादक हो, ऐसे अर्हन्त भगवान्, ही सच्चे देव हैं ।
टिप्पण - चार अतिशय - सच्चे देवत्व की
कसौटी हैं । वह चार
।
वह अतिशय यह हैं
श्रतिशय जिसमें पाये जाएँ, वही सच्चा देव है १. ज्ञानातिशय - केवलज्ञान, २. अपायापगमातिशय- वीतरागता - रागादि
समस्त दोषों का नाश, ३. आदि के द्वारा पूज्य होना,
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पूजातिशय- सुरेन्द्रों, असुरेन्द्रों और नरेन्द्रों तथा ४. वचनातिशय - यथार्थ वादित्व ।
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