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योगीश्वर भगवान महावीर ने आत्मा के साथः सम्यग-ज्ञान, दर्शन और चारित्र के सम्बन्ध को निश्चय दृष्टि से 'योग' कहा है। क्योंकि, ये रत्न-त्रय मोक्ष के साथ प्रात्मा का 'योग'-सम्बन्ध करा देते हैं।
. प्राचार्य हरिभद्र
मन, वचन और काय-शरीर की प्रवृत्ति को योग कहते हैं ।
-भगवान महावीर
चित्त की वृत्तियों को वश में रखना ही योग है।
- महर्षि पतंजलि
समस्त चिन्ताओं का परित्याग कर निश्चिन्त-चिन्तामों से मुक्तउन्मुक्त हो जाना ही योग है । वस्तुतः चिन्ता-मुक्ति का नाम योग है।
-महर्षि पतंजलि
सर्वत्र समभाव रखने वाला योगि अपने को सब भूतों में और सब भूतों-प्राणियों को अपने में देखता है ।
-गीता
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