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________________ योग-शास्त्र २३. २१. गुणों का पक्षपाती हो-जहाँ कहीं गुण दिखाई दें, उन्हें ग्रहण करे और उनकी प्रशंसा करे। ... २२. देश और काल के प्रतिकूल आचरण न करे। अपनी शक्ति और प्रशक्ति को समझे। अपने सामर्थ्य का विचार करके ही किसी काम में हाथ डाले, सामर्थ्य न होने पर हाथ न डाले। २४. सदाचारी पुरुषों की तथा अपने से अधिक ज्ञानवान् पुरुषों की विनय-भक्ति करे। जिनके पालन-पोषण करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर हो, उनका पालन-पोषण करे। दीर्घदर्शी हो, अर्थात् आगे-पीछे का विचार करके कार्य करे। २७. अपने हित-अहित को समझे, भलाई-बुराई को समझे। २८. कृतज्ञ हो, अर्थात् अपने प्रति किये हुए उपकार को नम्रता पूर्वक स्वीकार करे। २६. लोकप्रिय हो, अर्थात् अपने सदाचार एवं सेवा-कार्य के द्वारा जनता का प्रेम सम्पादित करे । ३०. लज्जाशील हो, निर्लज्ज न हो । अनुचित कार्य करने में लज्जा का अनुभव करे । ३१. दयावान् हो। ३२. सौम्य हो। चेहरे पर शान्ति और प्रसन्नता झलकती हो। ३३. परोपकार करने में उद्यत रहे। दूसरों की सेवा करने का अवसर आने पर पीछे न हटे । ३४. काम-क्रोधादि आन्तरिक छह शत्रुओं को त्यागने में उद्यत हो। ३५. इन्द्रियों को अपने वश में रखे। टिप्पण-बीज बोने से पहले क्षेत्र-शुद्धि की जाती है। ऐसा न किया जाए तो यथेष्ट फल की प्राप्ति नहीं होती और दीवार खड़ी करने से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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