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________________ योगासन योग-शास्त्र ३. काय-गुप्ति उपसर्गप्रसङ्गेऽपि, कायोत्सर्गजुषो मुनेः। स्थिरीभावः शरीरस्य, कायगुप्तिर्निगद्यते ।। ४३ ।। शयनासन-निक्षेपादान - चंक्रमणेषु यः। स्थानेषु चेष्टानियमः, कायगुप्तिस्तु साऽपरा ।। ४४ ।। देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्ग आने पर भी, कायोत्सर्ग में स्थित मुनि की काया की स्थिरता 'काय-गुप्ति' कहलाती है। उपसर्ग पाने पर भी मुनि जब कायोत्सर्ग करके अपने शरीर के हलन-चलन आदि व्यापारों को रोक लेता है और शरीर से अडोल तथा अकंप बन जाता है, तभी काय-गुप्ति होती है। - सोने-बैठने, रखने-उठाने, आवागमन करने प्रादि-आदि क्रियाओं में नियमयुक्त चेष्टा करना भी 'कायंगुप्ति' है। यह दूसरी काय-गुप्ति कहलाती है। टिप्पण-गुप्ति का अर्थ है-गोपन करना अथवा निरोध करना। मन के, वचन के और काय के व्यापार को रोकना-क्रमशः मनोगुप्ति, वचन-गुप्ति और काय-गुप्ति है । पूर्वोक्त पाँचों समितियाँ इनका अपवाद हैं। पाठ माताएँ एताश्चारित्रगात्रस्य, जननात्परिपालनात् । संशोधनाच्च साधूनां, मातरोऽष्टौ प्रकीर्तिता ॥ ४५ ॥ पाँच समितियाँ और तीन गुप्तियाँ साधुओं के चारित्र रूपी शरीर को जन्म देती हैं, उसका पालन-पोषण और रक्षण करती हैं और उसे विशुद्ध बनाती हैं, अतः यह आठ माताएँ कही गई हैं। टिप्पण-बालक के शरीर को जन्म देना, जन्म देने के पश्चात् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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