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ज्ञान : श्रेयस् का योग ___ सारी गीता में सबसे अधिक सारभूत श्लोक यही माना गया है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि सारे संसार में ज्ञान के समान पवित्र कोई नहीं। सब से पवित्र वस्तु सम्यक ज्ञान है।
हे पार्थ ! जितने भी दुनियां के अच्छे कर्म हैं, अच्छे-अच्छे काम हैं, वे सारे के सारे काम ज्ञान में जा कर ही समाप्त हो जाते हैं। अर्थात् जब व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति हो जाती है, तो ज्ञान पाने के बाद उसे बाकी कुछ करने की आवश्यकता नहीं होती। गीता कहती है, कि ज्ञान को पाने के बाद सभी कर्म समाप्त हो जाते हैं। जैन शास्त्रों में भी ज्ञान का वैसा ही महत्व बताया गया है। हमारे पूर्वाचार्य स्पष्ट कहते हैं, कि "नाणं नरस्य सारं", अर्थात मनुष्य का सार है ज्ञान । यदि मनुष्य के पास ज्ञान नहीं है, तो उस मनुष्य को मनुष्य भी नहीं कहना चाहिए। 'ज्ञानेन हीना: पशुभिः समानाः' जिस मनुष्य के पास ज्ञान नहीं है, वह मनुष्य, मनुष्य नहीं, पशु है । आप जानते हैं, कि संसार में इतने प्राणी हैं, पशु-पक्षी हैं, उन सब से मानव ऊंचा क्यों है ? ऊंचा होने का कारण है, ज्ञान और विवेक । ज्ञान के द्वारा मानव जान सकता है, कि अच्छा क्या है ? बुरा क्या है ?
सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं ।
उभयं पि जाणइ सोच्चा, जं सेयं तं समायरे ॥
दशवकालिक सूत्र में शयम्भव स्रि महाराज स्पष्ट कहते हैं, कि ज्ञान सुनने से होता है, पढ़ने से भी होता है। ज्ञान जैसे मर्जी हो सकता है। जिस व्यक्ति को ज्ञान हो जाता है, उस को फिर क्या चाहिए ? एक दार्शनिक ने यहां तक कहा है-"अमृतंतु विद्या।" विद्या क्या है ? अमृत क्या है ? ज्ञान ही अमृत है । अमृत कुछ और नहीं, सिर्फ ज्ञान ही एक वस्तु है, जो अमृत से उत्कृष्ट है, ज्ञान ही सब से बड़ा अमृत है। ज्ञान को समझने के लिए हमें एक बात जाननी आवश्यक होगी, कि ज्ञान की प्राप्ति के लिए हमें बहुत प्रयत्न करना होगा। "तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग् दर्शनम्-"
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