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________________ योग शास्त्र [२६३ बाँध न सकेंगे। कहीं अतिचार, अनाचार का दोष लग जाए तो प्रायश्चित्त-आलोचना के द्वारा परिशुद्धि सम्भव है। ___ अन्यथा धन-सम्पत्ति के समस्त विश्वास से सम्बधित आदान प्रदान का वह भी भागीदार होगा। यदि श्रमण भी अपने परिग्रह की आवश्यकता मर्यादा न रखे तो उसे भी परिग्रह का दोष लगेगा। किसी भी व्रत, महाव्रत में सीमा मर्यादा कर लेना, अन्य तथा भावी पापों से मुक्त होने का सहज मार्ग है। अपरिग्रह का यह अर्थ हरगिज़ नहीं होता कि, "हम ने तो समस्त पदार्थों का त्याग कर दिया है, हमें कुछ भी आवश्यकता नहीं है, परन्तु यदि कोई दान करने आता है तो न चाहते हए भी उस पदार्थ को ले लेने में क्या दोष हो सकता है ? सन्मख आ रही वस्तु को लेने से इन्कार क्यों किया जाए। अथवा-हमारे पास वस्तु अधिक होगी तो किसी अन्य को देने के काम में आएगी।" ऐसे विचारों से साधक का पतन हो जाता है । जब तक वह वस्तु साधक के पास रहेगी, तब तक के लिए क्या वह परिग्रहधारी न होगा? ___ आवश्यकता से अधिक तो तृण भी परिग्रह हो जाता है तो अधिक वस्तु रखने की आज्ञा भगवान् महावीर के द्वारा कैसे दी जा सकती है ? जब भी त्याग की भावना मन में आ जाए, तभी त्याग कर देना चाहिए । अन्यथा लोभ, परिग्रह की वृद्धि होते देर न लगेगी। भ० महावीर ने लोभ का मूल भयस्थान 'लाभ' बताया है। “जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई।" ... ज्यूं-ज्यूं लाभ होता जाता है त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता जाता है। इस का अर्थ यह नहीं कि आप अपने निजी लाभ को कम कर दो । इस का अर्थ है कि लाभ के साथ सन्तोष धर्म का सेवन करो लाभ के साथ जो हानि होती है, उस में समता रखो। लाभ के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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