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________________ २६२] अपरिग्रह परन्तु पति का आदेश था। संन्यास के लिए साथ में चलना है, तो इस के अतिरिक्त अन्य मार्ग ही नहीं है, उस ने स्वयं को समझाया तथा चल दी बाज़ार की ओर । जहाँ भी उस ने भीड़ देखी, बच्चों से अंगुलि छुड़वाई, तथा चल दी वापिस घर की ओर । यह सरासर धोखा था बच्चों के साथ । परन्तु जिस प्रकृति ने, जिन कर्मों ने उन बालकों को उत्पन्न किया है, क्या वे उन्हें भोजन भी न दे पाएंगे ? ___"पति देव ! चलिए अब वन की ओर ।” उसने विचार किया कि सारा सामान स्वयं लुटाने के पश्चात् तो अपनी प्राण-प्रिय सन्तान के प्रति मोहत्याग करने के पश्चात् कोई त्याग शेष नहीं रहा होगा । परन्तु रामतीर्थ ऊंचे स्वर से बोले __"अब तोसरो तथा अन्तिम परोक्षा...।" मैं जानता है कि तेरे मन में अपने पति के प्रति अपार अनुराग है। जब तक यह राग शेष है तब तक तुम सन्यास की अधिकारिणी नहीं । संन्यास धारण के पश्चात् कौन पति ! कौन पत्नी ! अब तू अपनी जिह्वा से यह कह दे कि मेरा पति रामतीर्थ मर चुका है। _ "श्रीमान् ! इतनी कठोर परीक्षा ! पति के जीवित हुए भी यह कैसे कह दूं कि वह.......। यह मुझ से न कहा जाएगा।" "तो ठीक है। तुम अभी घर में ही रहो। संन्यास बहुत दूर की वस्तु है।" अंततः उसे यह कहना ही पड़ा कि, "मेरा पति रामतीर्थ मर चका है ।" और रामतीर्थ अपनी धर्मपत्नी को प्रतिबोधित करने के पश्चात् वनवासी हो गए । अपरिग्रही बनने के लिए अपने मन को कितना दृढ़-परिपक्व करना पड़ता है। यदि मानव परिग्रह की सीमा बांध ले तो भी वह बहुत से पापों से सुरक्षित हो सकता है। उसे उस परिग्रह की अवधि तक ही पाप लगेगा, इस के अतिरिक्त कृत अकृत पापों के बंधन उसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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