________________
२०]
अपरिग्रह
राजा का भय है, न चोर का । न आजीविका. जाने का भय है। वियोग का, (संयोग की नहीं तो वियोग कैसे होगा ? ) साधुता के द्वारा इह लोक में तथा परलोक में सुख प्राप्त होता है । वास्तव में अपरिग्रही को ही अलौकिक सुख की अनुभूति होती है ।
परस्पृहा महादुःखं, निःस्पृहत्वं महा-सुखं
अन्य की स्पृहा दुःख है तथा निःस्पृह हो जाना महान सुख है । 'नि:स्पृहस्य तृणं जगत् ।' निःस्पृह व्यक्ति को सारे संसार का राज्य भी मिल जाए तो वह उस के लिए तुच्छ है । वह उसको तृण के समान समझ कर छोड़ देगा ।
स्वामी रामतीर्थ की अस्पृहा
स्वामी रामतीर्थ घर में भी परम वैराग्यवान् थे । उन्होंने संसार के पदार्थों पर से मूर्च्छा, ममता को छोड़ दिया था । वे चाहते थे कि अब संन्यास धारण कर लिया जाए परन्तु पत्नी इस बात को स्वीकार करे इस में सन्देह था ।
उनकी धर्मपत्नी उन के साथ ही संयम का स्वीकार करें यह तो मानो ! असम्भव ही था । जैसी परिग्रह मुक्ति स्वामी राम तीर्थ ने प्राप्त की थी, वैसी सम्भवतः उन की धर्मपत्नी न कर पाई थी।
एक दिन स्वामी रामतीर्थ ने संन्यास धारण करने की इच्छा व्यक्त की । पत्नी ने इस कार्य में बाधा उत्पन्न की। वह कहने लगी कि अभी इस वय में क्या संन्यास लिया जा सकता है ? स्वामी रामतीर्थ बोले, "संन्यास तो भावना पर आधारित है, उस में वय का प्रश्न ही व्यर्थ है ।
जब स्वामी रामतीर्थ न माने तो उन की धर्म पत्नी ने कहा, " पतिदेव ! यदि आप संन्यास के मार्ग पर चलेंगे तो मैं भी आप का ही अनुकरण करूंगी ।"
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org