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योग शास्त्र
२८६ मानव मानसिक त्याग के लिए सुसज्ज होता हैं । अथवा मानसिक त्याग के लिए सुसज्ज हो जाने के पश्चात् भौतिक त्याग अनिवार्य हो जाता है।
वर्तमान में कारों के काफिलों के साथ अनेक आडम्बरों से यक्त हो कर चलने वाले तथा कथित योगी भी इस संसार का यह जंजाल जो गहस्थों के पास नहीं होता, वह इन महात्माओं के पास में होता है ! कुछ साधु अपने गृह का त्याग करके 'मठ' बना लेते हैं, यह भी परिग्रह का ही लक्षण है। यदि 'मठ' पर स्वाधिपत्य रखना था तो अपना घर छोड़ने की आवश्यकता ही क्या थी ? इतना अवश्य है कि ये महात्मा लोग मठ में आने वाले व्यक्ति के लिए भोजन तथा निवास की सुविधा प्रदान करते हैं। जहां तक उपकार का प्रश्न हैं, मठ परम्परा का कोई अर्थ हो सकता है। स्वयं की साधना में तो इन मठों का मोह बाधक ही बनता है । त्यागी की परिभाषा करते हुए आचार्य शय्यंभव सूरि जी ने कहा था
जे अ कंते, पिए भोए, लद्धे वि पिट्ठी कुत्वई।
साहीणे चयई भोए, से हु चाइत्ति बुच्चई ॥ जो व्यक्ति प्रिय, कांत, भोगों के होने पर भी उन की ओर पीठ कर लेता है, स्वाधीन मांगों को छोड़ देता है, वही त्यागी कहा जा सकता है। .. जो व्यक्ति जितना सर-सामान, भौतिक सामग्री छोड़ कर आता है, उस से अधिक बसाने के चक्कर में पड़ा रहे तो उसे अपरिग्रही कहा जाए या परिग्रहो ?
अपरिग्रही भय निर्मुक्त हो जाता है। न च राज़भयं न च चौरमयं, न च वत्तिभयं, न वियोगभयम् । इहलोक-सुखं, परलोक, सुखं, श्रमण त्वमिदं, रमणीयतरम् ॥ . अहा ! साधु जीवन कितना रमणीय है ! कि इस में न
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