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अपरिग्रह
में छिपा है, अपरिग्रह में छिपा है ।
एक व्यक्ति लाखों रुपयों का पुण्य से अर्जन करता है । पहले वह कीचड़ में अपना पैर डालता है तथा बाद में उस पैर का प्रक्षालन करता है । आप उस व्यक्ति को बुद्धिमान् कहेंगे या मूर्ख ? वह बुद्धिमान कैसे हो सकता है ?
इसी प्रकार से जो व्यक्ति पहले पैसा कमाने के लिए पाप करता है तथा फिर उस पाप को धोने के लिए कुछ दान दे देता है उस व्यक्ति का वह पुण्य क्या पाप को धो डालेगा ?
दान करने का कभी भी निषेध नहीं किया जाना चा हए परन्तु यदि आप यह समझते हैं कि अधिक धन कमाएंगे तथा अधिक दान देंगे तो यह दृष्टिकोण गलत है ।
पहले आप ने पैसा कमाने के लिए पाप किया, फिर उसे धोने के लिए दान दिया। यह दान तो उस पाप का ब्याज भी न चुका पाएगा। पाप के जिस ब्याज की प्राप्ति होने वाली थी, वह आप को संभवतः न हो, परन्तु मूल राशि (पाप) का फल तो अभी मिलना शेष है । उसे भी कभी न कभी भोगना पड़ेगा ।
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ले अतः इस से श्रेष्ठ है कि व्यक्ति संतोष को धारण कर " प्रक्षालनाद् हि पंकस्य, दूरादस्पर्शनं वरं । " कीचड़ में पैर को डाल कर धोने से तो कीचड़ से अस्पर्श ही अच्छा है ।
जब तक जीवन में संतोष-निर्लोभिता नहीं आती, अपरिग्रह नहीं आता तब तक हमारी समस्त धर्म क्रियाएं सम्यक् नहीं हो सकतीं ।
लोभी व्यक्ति स्वार्थी भी होता है । वह किसी से बात करेगा । तो भी स्वार्थ की सिद्धि को प्राथमिकता देगा | माला जाप करेगा तो भी कुछ प्राप्त करने के स्वार्थ से । वह मंदिर में जाएगा तो भी किसी स्वार्थ को लेकर । ऐसी वृत्ति वाला शांति को प्राप्त नहीं कर सकता ।
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