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________________ अपरिग्रह आचार्य हेमचन्द्र सूरीश्वर जी चारित्र के भेदों का निरूपण करते हुए पंचम भेद अपरिग्रह की व्याख्या करते हैं। उन का कथन है सर्वभावेन मूर्छायास्त्यागः स्यादपरिग्रहः । यदसत्स्वपि जायेत, मूर्च्छया चित्तविप्लवः ॥१४॥ अर्थ :-मर्छा का त्याग ही अपरिग्रह है। वह देशविरति हो या सर्व-विरति के रूप में हो । उस में मूर्छा का, ममता का त्याग आवश्यक है। विवेचन :-अपरिग्रह का शाब्दिक अर्थ है-अपने पास कुछ भी न रखना। किसी वस्तु पर अपना अधिकार न जताना अथवा उतना ही अपने पास रखना, जितना आवश्यक हो, आवश्यकता से अधिक तृण भी परिग्रह हो जाता है। . यहां हेमचन्द्राचार्य नैश्चयिक अपरिग्रह की परिभाषा देते हैं। यदि आप के पास कुछ भी नहीं, न रुपया पैसा, न सामग्री, न स्त्री परिवार, न मकान तथापि आप के मन में उस के प्रति मूर्छा है, ममता है, तो आप अपरिग्रही नहीं हो सकते । मर्छा, मोह का सम्बन्ध सीधा मन से है । यदि आप के पास धन नहीं, काया से आप ने भौतिक पदार्थों का संग्रह नहीं किया, परन्तु आप का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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