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ब्रह्मचयं
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हैं | मन का संयम महत्त्वपूर्ण है । यदि काया से संयम का पालन हो रहा है, परन्तु मन में काम वासनाओं की प्रचुरता है, प्रतिक्षण; मन संकल्प - विकल्प के जाल में उलझा रहता है तो वह काया का ब्रह्मचर्य विशेष उपयोगी सिद्ध न हो सकेगा । मन के विचारों को जब तक सात्विक नहीं बनाया जाता तब तक ब्रह्मचर्य मात्र एक आडम्बर बनकर रह जाता है । आज के युग में भौतिकता के कारण मन का वशीकरण अधिक कठिन हो रहा है । इस युग गृहस्थों की तो क्या ! साधुओं की वृत्ति भी कलुषित विचारों से दूर रहनी कठिन है । बम्बई जैसी मोहमयी नगरी में जिस में आज से ५० वर्ष पूर्व वातावरण कुछ सादगी पूर्ण था, फैशन तथा सौंदर्य का यहां बाज़ार न लगता था, साधुओं का गतागत एक सोचा समझा हुआ कदम था । सर्वप्रथम श्री मोहन लाल जी महाराज बम्बई में आए तथा उन्होंने बम्बई को साधुओं की विहरण स्थली
में
बनाया ।
वस्तुतः कोई भी देश या वेष क्यों न हा, साधुओं को सचेत रहना ही पड़ता है । देश का प्रश्न ही व्यर्थ है । यदि मन संयम में है तो क्या बम्बई, क्या कलकत्ता, सब संयम के साधक हो सकते हैं । 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' बाज़ार में चले जाइये । फिल्मों के अश्लील पोस्टर दृष्टि गोचर होते हैं । अनेक राष्ट्र सुधारक संस्थाओं ने इन सब का विरोध किया परन्तु परिणाम शून्य ही रहा । परितः अध: पतन ही दृष्टिगोचर हो रहा है । जनता इस मार्ग पर जाकर क्या प्राप्त करेगी ?
फिल्मों में मारधाड़ तथा प्रेम के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त करना कठिन है । प्रेम की ऐसी काल्पनिक कृत्रिम कथा चित्रित की जाती है कि दर्शक चकित रह जाता है । ऐसी कथाओं में मिलता क्या है ? समाज के युवक नावेल पढ़ते हैं । वे संयम को समझना नहीं चाहते । जब कि संयम को समझने की आवश्यकता
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