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अचौय
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चोरी के अनेक कारणों तथा दरिद्रता, लोभ, प्रेम, परम्परा आदि परिगणित किए जा सकते हैं । अंगुलि माल तथा रोहिनिय कुल. परम्परा से डाकू थे परन्तु उन्होंने क्रमशः भगवान महावीर तथा भगवान बुद्ध के उपदेशों को जीवन की दिशा को ही परिवर्तित कर दिया । दरिद्रता जैसी विवशता से क्रियमान चोरी उस व्यक्ति के जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करके दूर की जा सकती है । जम्बु कुमार जैसे महावीरों के जीवन को देख कर, प्रभव, जैसे पल्लीपति प्रभव स्वामी बन कर महावीर के पट्ट को सुशोभित कर सके । महात्माओं के उपदेश से बंकचूल जैसे चोर भी नरक गति की नियति से मुक्त हो कर स्वर्ग के सुख भोगों को पा सका । वुभुक्षितः किं न करोति पापं जो भूखा होगा, बेरोजगार होगा वह चोरी के मार्ग पर चले तो आश्चर्य नहीं है । अतः अपने सामियों को शनैः-शनैः ऊपर उठाना चाहिए | सामायिक करने वाले सेठ के हार को चुराने वाला जब पत्नी की प्रेरणा से वह हार बेचने के लिए उसी सेठ के घर जाता है तो वह सेठ साधर्मियों का ख्याल न रखने की अपनी गलती मान कर वह हार उसी को देकर क्षमा याचना भी करता है वस्तुत: अपने पड़ोसी या साधर्मी भाई को सहायता न देकर समाज उसे स्वयं चोर बनाती है । चोरी के धन से व्यक्ति सतत रूप से उद्विग्ण रहता है । वह शांति को प्राप्त नहीं कर सकता । खून पसीने से से अर्जित धन से सदैव शांति प्राप्त की जा सकती है । उस धन में बरकत होती है । वह धन उपयोग में लेने पर भी नहीं खूटता । अन्याय के धन में ऐसी दुर्गन्ध होती है जिस से को वहां खड़ा रहने से भी घृणा हो जाती हैं ।
न्यायशील व्यक्ति
चोर अपनी ओर से चोरी का कोई प्रमाण छोड़ कर नहीं जाता परन्तु परिवेक्षण के पश्चात् वह जब हस्तगत हो जाता है
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