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________________ योग शास्त्र [२१५ मितभाषिता से होती है । अतः सत्य वचन को 'हितमितपथ्यं सत्यं' कहा है । जो वचन हितकारी होता है, दूसरे का कल्याण करता है, किसी को दुःख नहीं पहुंचाता है, किसी के हित की बुद्धि से कल्याण की कामना से कहा जाता है, वह सत्य होता है । सत्य सदैव 'मित' होता है । वह कभी-कभी विस्तृत रूप से नहीं कहा जाता । जब सत्य का विस्तार किया जाता है तो कहीं भी असत्य के मिश्रण का भय रहता है । सत्य सदैव पथ्य होता है । वह अमृत की तरह शरीर तथा मन को सात्त्विक बनाता है । पथ्य वचन का प्रयोग मन तथा वचन को पवित्र बनाता है । ऐसा सत्य किसी के लिए अप्रिय नहीं होता । जो सत्य हो कर भी अप्रिय होता है, उसे सत्य भी नहीं कहना चाहिए । सत्यं ब्रूयात्, प्रियं ब्रूयात् । न ब्रूयात् सत्यमप्रियं ॥ सत्य लेकिन प्रिय वचन बोलना चाहिए। जो सत्य किसी को दुःख दे, वो सत्य अहिंसायुक्त नहीं हो सकता । काने को काना, अंधे को अंधा कहा जाए तो उसे क्या दुःख न होगा ? वाणी की मधुरता भी सत्य की ही परिभाषा है । यह मधुरता चापलूसी नहीं होनी चाहिए । अन्यथा चापलूसी वाला वचन भी असत्य की भांति ही फल देगा । श्री तुलसी दास जी ने असत्य को सबसे बड़ा पाप कहा है नहि असत्य समपातक पुँजा, गिरिसम होहि कि कोटर गुंजा । असत्य से मानव की आंतरिक शक्तियों का विकास रुद्ध हों जाता हैं । सत्य की शक्ति का आभास सत्यवेत्ता को ही हो सकता है। एक अंग्रेज लेखक ने लिखा है For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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