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________________ योग शास्त्र [२११ का विशाल संसार सत्य के आगे बौना लगता है परन्तु इस सत्य से जीवन जीना प्रत्येक को नहीं आता । असत्य जीवन के किस क्षेत्र में नहीं है । व्यापार, अर्थ, नीति, समाज, व्यवहार ये सभी असत्य से दूषित हो चुके हैं । सत्य का पक्षपाती असत्य प्रिय लोगों में दब सा जाता है । उस का स्वर मुखर नहीं हो पाता । बहुत से चोरों के बीच साधु की क्या कीमत बहुत से ठगों के बीच ईमानदार की कितनी कीमत ? बहुत से मूर्खों के मध्य बुद्धिमानों की कितनी कीमत ? बहुत असत्यवादियों के मध्य सत्य का भी क्या मूल्य ? परन्तु असत्यवादी को समझ लेना चाहिए कि उस की पोल अधिक नहीं चल सकती । जब उस असत्य का भंडाफोड़ हो जाता है तो व्यक्ति कहीं का नहीं रहता । उस का विश्वास समाप्त हो जाता है । उस की गतिविधियां संदिग्ध हो जाती हैं तथा वह स्वयं अशांति का शिकार हो जाता है। असत्य को कई बार सत्य बनाने का प्रयत्न किया जाता है । परन्तु असत्य सत्य कैसे बन सकता है ? एक झूठ को सिद्ध करने के लिए मानव की १०० झूठ बोलने पड़ते हैं वह झूठ फिर भी झूठ ही रहता है, वह कभी भी सत्य नहीं हो सकता । आज तो कदम-कदम पर झूठ बोला जाता है । आज असत्य ही जीवन का सत्य बन चुका है । यह सब जीवन की किसी उपलब्धि के लिए है? जीवन चलाने के लिए रोटी ही तो चाहिए । किसी भी कार्य का अर्थ उदर पूर्ति ही तो होता है । छोटे से पेट के लिए बड़े से बड़े झूठ बोले जाते हैं । कई बार तो बच्चे को भी झूठ सिखाया जाता है । परिणामतः सत्य बोलने की संभावना ही समाप्त हो जाती है । एक गृहस्थ से उस का व्यापारी रुपये मांगने आया । वह गृहस्थ अभी देने के मूड में न था । उस आगन्तुक ने द्वार For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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