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.. अहिंसा ही हिंसा हैं। जो कि कर्म बन्ध का हेतु होने के कारण त्याज्य है। एकेंद्रिय को १ प्राण-प्रथम तथा अन्तिम तीन, द्वीन्द्रिय को रसना तथा वचन सहित ४. त्रींद्रिय को घ्राण सहित ७. चतुरिंद्रिय को चक्षु सहित ८. संमूच्छिम पंचेंद्रिय को श्रोत्र सहित ६ तथा गर्भज पंचेन्द्रिय तक नारकी एवं देव को १० प्राण होते हैं।
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