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अहिंसा
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परन्तु आनन्द कामदेव आदि श्रावकों की तरह अपने दृढ़धर्म प्रेम का परिचय नहीं देगा । बहुत कम श्रावक ऐसे होते हैं जो कि उस समय धर्म को प्रमुखता देते हैं ।
मन वचन तथा काया से हिंसा करने, कराने तथा अनुमोदन करने का त्याग होना आवश्यक है । साधु के लिए तो जल, वायु अग्नि आदि का सेवन भी वर्जित है ।
यहां एक प्रश्न होता है कि साधु ग्रहण करते हैं । क्योंकि सचित्त जल के होती है । वरन्तु जल को गर्म करने से होती, उस का पाप क्या साधु को न लगेगा ।
प्रासुक (गर्म ) जल ही पान या स्पर्श से हिंसा जल के जीवों की हिंसा
प्रश्न उचित है । परन्तु इस के समाधान के लिए जैन दृष्टि से विचार करना अनिवार्य है ।
पूर्वकाल में गृहस्थ श्रावक गर्म जल ( प्रासुक) पीते थे साधुओं को स्थान-स्थान से थोड़ा-थोड़ा जल मिलना सुलभ था । यह जल एषणीय तथा दोष रहित होता था क्योंकि जैसे गृहस्थ के घर से परिवार के लिए बनाए गए भोजन में से साधु आधी रोटी ले भी आता है तो उसे दोष नहीं लगता उसी प्रकार से पानी प्राप्त करने में भी दोष नहीं था ।
वर्तमान में गृहस्थों ने गर्म पानी पीना छोड़ दिया है । सभी सचित्त जल पायी बन गए । परिणामतः साधुओं के लिए गर्म प्रासुक जल गृहस्थ के घर में या आयंबिलशाला में विशेष रूप से बनना प्रारम्भ हो गया । एक तो यह आधाकर्मी दोष तथा साधु निमित्त से जल तथा अग्निकाय के जीवों की हिंसा का दोष । ये २ दोष तो लगते ही हैं । परन्तु इस से साधु गर्म पानी लिए बिना सचित्त ( सजीव - कच्चा ) ही पीना प्रारम्भ न कर देगा क्योंकि ऐसा करने से अनेक अन्य दोषों की पूरी सम्भावना है।
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१. प्रासुक जल सीमित ही मिलता है अतः सीमित रूप से ही उसका उपयोग भी होता है । यदि साधु कच्चा पानी प्रयोग
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