SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिंसा जब दूसरी रानी ने उस की सेवा के लिए बहुत सुन्दर. स्वादिष्ट भोजन बनवाया तथा उसे खिलाया साथ में दक्षिणा भी दी तथा उसे नृत्य आदि भी दिखाया । परन्तु चोर का मन नहीं लगता । उस के मन में यही विचार चलते हैं 'क्या खाऊं ये सब मिष्टान्न और क्या देखूं ये नृत्य अरे ! चार पांच दिन के बाद तो फांसी होने वाली है ।' अतः उसे ये माल - पानी खाने में मजा नहीं आया । १८२ ] भोजन करने में मजा नहीं आएगा । जब तीसरी रानी ने चोर की सेवा के लिए चोर को बढ़िया भोजन खिलाया और न केवल नृत्य अपितु साथ में संगीत इत्यादि भी आयोजित किया । चोर को प्रसन्न करने की यह नवीन विधि थी । परन्तु फिर भी चोर का मन नहीं लगा । क्योंकि सामने उसे मौत ही दृष्टिगत हो रही थी । फांसी में दो चार दिन की ही देर थी । कैसे मन लगता भोजन, नृत्य, संगीत में ? मरने से दुनियां बहुत डरती है । लोगों में मृत्यु का भय बहुत हैं । एक छोटा सा कीड़ा नाली में दुर्गंध में रहता है, वह भी मरना नहीं चाहता । और स्वर्ग लोक का इन्द्र तथा पृथ्वी लोक का चक्रवर्ती भी मरना नहीं चाहता । अतः जो मृत्यु है वह सब को अप्रिय है । 1 सव्वे जीवावि इच्छंति, जीविउ न मरिज्जिउ ॥ इसका तात्पर्य है कि सब प्राणी जीना चाहते हैं मरना कोई नहीं चाहता । और जब चौथी रानी रूपवती को चोर की सेवा करने का अवसर मिला तो उसने क्या किया ? भोजन इत्यादि के पूर्व वह राजा के पास जाती है और उनको निवेदन करती है । हे राजन् ! मैं इसकी सेवा तो करूंगी, परन्तु मेरी एक इच्छा है । मुझे प्रतीत होता है कि इस चोर के मन पश्चाताप हैं, इसे मैं स्वयं उपदेश देकर सुधार लूंगी। आप इस बारे में निश्चित रहिए तथा चोर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy