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________________ ६१७५ योग शास्त्र सपाप तथा निष्पाप मन ही मनुष्य के लिए बंध तथा मोक्ष का कारण बन जाता है। __ मन एवं मनुष्याणां, कारणं बंधमोक्षयोः । तंदुलिया मच्छ मन में मात्र विचार ही करता है कि यह बड़ा मगरमच्छ मर्ख शिरोमणि है जो कि मुख में आगम्यमान मछलियों को बिना निगले छोड़ रहा है यदि मैं इस का स्थानापन्न होता तो अवश्य ही समस्त मत्स्यों को उदरसात् कर जाता। यही मन के विचार चावल के सदृश काया वाले तंदुलिक मच्छ को सातवीं नरक में ले जाते हैं । मनोभावों का हिंसा तथा अहिंसा के साथ अतीव सम्बन्ध है। हिंसा में कलुषित मनोभावों का प्राधान्य रहता है । दूसरा दृष्टांत है प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का। जिस समय वो संसार को छोड़ कर एक पैर पर खड़े होकर सूर्य के सम्मुख दृष्टि लगा कर ध्यान कर रहे थे, उस समय श्रेणिक सम्राट् के सैनिक वहां मुनि को देख कर बातें करते हैं। सुमुख मंत्री बोला, "अहो ! ये मुनि कितने महान् हैं, कितने तपस्वी हैं।" तब दूसरा दुर्मख नाम का मंत्री बोला, "क्या यह मुनि है ? यह मुनि नहीं है, यह तो अपने छोटे राज कुमार का राज्याभिषेक करके भाग निकला है, जंगल की ओर । इस को यह ज्ञात नहीं कि इसके पुत्र पर शत्रुओं ने आक्रमण कर दिया है, इस का बालक शत्रुओं से मारा जाएगा तथा प्रजा की रक्षा भी न हो पाएगी। यह तो महामूर्ख मुनि हैं, महामुनि कहां? यह वार्तालाप प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने सुना ? मन में विचार आने लगा कि जब तक मैं बैठा हूं तब तक कोई मेरे बच्चे को मार कैसे सकता है ? मन में यह विचार आया और मन ही मन विचारों का स्रोत प्रवहमान होना प्रारम्भ हो गया। मन में सोचते ही सोचते ही रहे, रहे कि जो भी शत्रु है उसे मार कर भगा दूं । उन्होंने विचारों के द्वारा मन ही मन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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