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ज्ञान तथा क्रिया यह वास्तविकता भी है । न्याय शास्त्र को पढ़ने वाला तों में कभी-कभी इतना उलझ जाता है, कि न वह सत्य को पा . सकता है न शांति को।
कहना ही होगा कि सर्वत्र ज्ञान ही उपयोगी नहीं होता। शांति का मूल्य ज्ञान से भी अधिक होता है । क्योंकि ज्ञान, आत्मशांति के लिए ही प्राप्त किया जाता है। ४४. जो अज्ञानता में पाप करता है वह क्षम्य हो सकता है, परन्तु जो ज्ञानी बन कर भी, पाप को पाप जानते हुए भी, पाप करता है वह संतव्य नहीं हो सकता। ४५. आधुनिक शिक्षा भी मात्र आजीविका चलाने के लिए नहीं होनी चाहिए, परन्तु समाज को नोति का पाठ सिखाने के लिए होनी चाहिए।
इस प्रकार आप ने देखा कि ज्ञान को क्रिया, चारित्र, सदाचार से बिल्कुल अलग कर दिया जाए, तो जीवन कितना विसंगत हो जाता है। सदाचार (क्रिया) के बिना ज्ञान की कल्पना करना भी कितना हास्यास्पद लगता है । इस प्रकार यह मान्यता ध्वस्त हो जाती है कि एकांकी ज्ञान मोक्ष को प्राप्त करा सकता है। यद्यपि उपर्युक्त शास्त्र वचनों में 'ज्ञान' के प्रसंग में क्रिया का निषेध नहीं होता, परन्तु उस 'ज्ञान वाद' के वाक्य को पढ़ कर कोई बालजीव वाक्यों को क्रिया का महत्व समझाने के लिए जान बूझ कर तर्क द्वारा काटा गया है । इस प्रयास को कोई अन्यथा रूप से न ले।
अब देखिये कि एकाकी क्रिया मोक्ष में पहुंचाने के लिए कितनी उपयोगी है। क्रिया के प्रत्येक सूत्र (शास्त्रवाक्य) को ज्ञानवाद का महत्व समझाने के लिए तर्क के द्वारा काटा गया है। १. जयं चरे, जयं चिट्टे, जयमासे जयं सए।
जयं भुजंतो भासंती, पावकम्मं न बंधई ॥ दशवं०
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