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ज्ञान तथा क्रिया तर्क-विद्या ने स्वयं चारित्रहीन लोगों को बचाने के लिए आह्वान किया। स्पष्ट है, कि चारित्र हीन, क्रियाहीन, दुराचारी, ईर्ष्यालु लोगों के पास पहुंचने के पश्चात उस विद्या का सुफल नहीं हो सकता। उस का अशुभ परिणाम ही सामने आता है। ३८. बलवानिद्रिय ग्रामो, विद्वांसमपि कर्षति ।
बलवान इन्द्रिया विद्वान् को भी विषयों की ओर आकर्षित करती हैं।
तर्क-अर्थात्, ज्ञानी को भी विषय योग सामग्री से दूर रहने की आवश्यकता है, नहीं तो वह पतित हो सकता है । ज्ञान के अंकश से इन्द्रियों तथा मन रूपी हाथी को वश में करना चाहिए। ज्ञान तभी सार्थक है, जब कि वह इन्द्रियों को भी अकुंश में रख सके। ३६. ज्ञानस्य फलं विरतिः ।
ज्ञान का फल विरति (चारित्र) है । ज्ञानी व्यक्ति पापों से विरत न हो तो वह ज्ञानी कैसा ? ४०. पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढाई अक्षर प्रेम के, पढ़े जो पंडित होय ॥
शास्त्र ज्ञान का फल विश्व वात्सल्य है । ज्ञान के साथ-साथ विश्व मैत्री तथा विश्व करुणा का भाव विकसित होना ही चाहिए। ४१. जहा खरो चंदन भखाही, भारस्स भागी नहु चंदनस्स।
एवं खु नाणी चरणेन हीनो, नाणस्य भागी न हु सुगईए ॥
चंदन का भार ढोने वाला गधा भार को ही ढोता है वह उस की सुगन्ध का लाभ नहीं उठाता। उसी प्रकार से ज्ञानी यदि चारित्र हीन हो तो वह ज्ञान को ढोता है, परन्तु सद्गति को प्राप्त नहीं कर सकता। अर्थात् वह ज्ञान का बोझ ढोता रहता है, जिस
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