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सम्यक् चारित्र साधु के धर्म नियमों का पालन करने को तैयार नहीं है, परन्तु ये महामुनि जिन्होंने सब कुछ छोड़ कर संयम लिया है, वे इन तीनों ढेरों को लेने के अधिकारी हैं, फिर भी ये लेने से इन्कार कर रहे हैं। कैसे निःस्पृह हैं ये? और आप हैं, जो कि इन निःस्पृह साधुओं की निंदा करते हैं । आप सब को लज्जा आनी चाहिए। मंड मंडाए तो तीन गुण मिलते हैं। मैं आप को मंडन के ही तीन ढेर दे रहा हूं, परन्तु किसी में वह लेने का साहस नहीं है।
___ जनता संयम (चारित्र) के महत्त्व को समझ गई थी। बस ! चारित्र की साधना करने वाला उत्तरोत्तर आगे बढ़ता रहे तभी मोक्ष शीघ्र ही प्राप्त हो सकेगा। वाक्यों के अनुसार एक वर्ष की दीक्षा पर्याय वाले साधु को अनुत्तर विमान के सुखों का अनुभव होता है । यह कितने निर्मल चारित्र की बात होगी। अभव्य प्राणी भी कई बार दीक्षा अंगीकार करके चारित्र का उत्कृष्ट पालन करता है, परन्तु उसे ऐसा सुख अनुभूत नहीं होता। होगा भी क्यों ? वह तो मिथ्या-दृष्टि ही होता है। वह ऐसे उच्च चारित्र का पालन करता है, कि मृत्यु के पश्चात् नवमें ग्रेवेयक विमान तक पहुंच जाता है, परन्तु गुणस्थान उस का मिथ्यात्व का ही रहता है।
अतः चारित्र बाह्याडंबर का विषय नहीं होना चाहिए। वह सम्यक् चारित्र बनना चाहिए । चारित्र एक उत्सर्ग मार्ग है, कहीं पर अपवादों का सेवन भी करना पड़ता है । परन्तु अपवाद का सेवन इतना नहीं होना चाहिए, कि उत्सर्ग हो समाप्त हो जाए। यह ठीक है, कि शासन सदैव अपवाद से ही चलता है। समय-समय पर युग, समय तथा व्यक्ति के अनुसार परम्पराओं तथा मर्यादाओं को परिवर्तित करना ही पड़ता है, परन्त वह परिवर्तन सीमित होना चाहिए। संयम के उत्तर गुणों में कोई, दोष लग जाए तो क्षम्य हो सकता है। परन्तु मूलगुणों (पंच महाव्रतों) में दोष लगे, तो वह क्षन्तव्य नहीं होता।
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