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सम्यक् चारित्र कि उन का दाम्पत्य जीवन सुखी हो तथा उन में परस्पर वाग्युद्ध या बेलन युद्ध न हो।
यदि श्रावक कहीं भी जा रहा है तथा मार्ग में जिन मन्दिर आ जाए तो श्रावक को जिन प्रतिमा के दर्शन करके ही आगे बढ़ना चाहिए, अन्यथाः उस के व्रतों में तथा श्रावकत्व में दोष लगता है।
वज्रबाह ने विचार किया, कि मेरे सद्भाग्य से ही तारक गुरु देव के यहां पर दर्शन हो गये। वहां जा कर उन को वन्दन करना चाहिए। अभी तक विवाह-चिन्ह बंधा है और भावना है मनिवर के दर्शन करने की । यदि उन के स्थान पर कोई आज का श्रावक होता, तो मार्गस्थ मुनि को वन्दन करने की बात भी उसे न सूझती, क्योंकि जब अपने नगर में पहुंच कर इस औपचारिकता को निभाना ही है, तो मार्ग में बंदन क्यों किया जाए ?
वज्रबाह को तो वंदन से कृतार्थ हो जाना था। उसे इसी में धन्यता का दर्शन हो रहा था । वज्रबाहु ने अपने साले से कहा, "उदय सुन्दर ! संमुखस्थ पर्वत पर मुनिराज खड़े हैं । चलो ! उन का दर्शन वन्दन ही कर लें।" उदय सुन्दर ने इस बात का उपहास करते हुए कहा, “जीजा जी ! आप की कहीं दीक्षा की भावना तो नहीं है।
कभी-कभी मनोरंजन के लिए किया गया मजाक भी कितना महंगा पड़ता है।
_ "भावना तो है ही।" वज्रबाह का सहज उत्तर था । वर्तमान में प्रायः देखता हूं कि समाज में कि विवाह से पूर्व जो युवक तथा युवतियां परमात्म दर्शन, पूजन, गुरु वन्दन आदि कर रहे होते हैं, वे विवाह के पश्चात् समय के अभाव के कारण, जिम्मेदारियों के कारण या अरूचि के कारण मंदिर जाना ही छोड़ देते हैं । धर्म पत्नी की प्राप्ति के बाद धर्म की कितनी वृद्धि होती है। कितना
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