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योग शास्त्र
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लाख रुपये हैं । मांग-मांग कर २-२ पैसे जोड़ कर ये लोग धन एकत्रित करते हैं, पता तब चलता है, जब ये लोग मर जाते हैं । आज का मानव बातों के महल बनाना चाहता है । एक कवि ने कहा था ।
उठ जाग ! तू क्यों अब डरता है । फिर देख प्रभु क्या करता है ॥
यदि तुझे भाग्य तथा भगवान् पर विश्वास है, तो उठ कर पुरुषार्थ तो कर । फिर देख ! भगवान् तुझे क्या कुछ नहीं देता ।
मानो, कि आपको कहीं से ज्ञान हो गया, कि गुड़ का स्वाद मीठा होता है । आपने कभी उसका स्वाद नहीं चखा, तो क्या गुड़ के ज्ञान मात्र से ही गुड़ का स्वाद जान लोगे ? मीठा कैसा होता है, इसके लिए आप को गुड़ चखना ही पड़ेगा ।
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पाठक समझ गए होंगे, कि जीवन में आचरण का स्थान कितना ऊंचा है । आचरण का ही दूसरा नाम चारित्र है । यदि शास्त्रों को एक तरफ भी रख दें, तो जीवन की स्वच्छता को भी चारित्र का ही नाम देना चाहिए । मानव यदि व्रत, नियम, प्रात्याख्यान या देश विरति का आराधक भी हो, तो भी बाह्य जीवन में आंशिक १८ पाप स्थानों से निवृत्ति रूप गुण नीति, सत्याचरण, सरलता, मृदुता, दान, मिलनसारिता, समन्वय, अनरूपा, अघृणा, सद्भाव, सन्मान, वात्सल्य, दया, सदाचार, नम्रता, शांति, सन्तोष, अमोह, प्रशंसा, गुण, वर्णन, अहर्षशोक, तटस्थता, निष्कपट, व्यवहार, सत्यगवेषणा, आदि कि क्रमांक १८ पाप स्थानों के क्रम से दिए हैं। जो कि किसी न किसी रूप में १२ व्रतों में भी सम्मिलिए किए जा सकते हैं -- भी चारित्र ही अंग परिगणित करने चाहिएं। यदि ऐसा बाह्य चारित्र . मानव के अन्तरंग में समाविष्ट हो जाए, तो देश विरति का ग्रहण तथा पालन सरल हो जाए। जैन साधु तथा श्रावकों के अतिरिक्त
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