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________________ योग शास्त्र [११३ के ग्रन्थ 'ललित विस्तरण' को देख कर उस का मन जैन धर्म पर दृढ़ श्रद्धालु बन गया । अन्ततः हृदय का विश्वास ही सफल हुआ। शास्त्र यह नहीं कहते, कि तर्क मत करो । तर्क तो विद्या के आभूषण हैं Arguments are the ornaments of knowledge. तर्क तो आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने भी किया था। उन्होंने पहले स्वयं शंका प्रस्तुत की तथा बाद में स्वयं ही तर्क से समाधान प्रस्तुत किया । तर्क से पदार्थ की सिद्धि होती है । परन्तु यदि तर्क ही असीमित हो जाए, तो क्या होगा? एक ट्रेन ड्राइवर ने ट्रेन चलाते हुए मार्ग में एक भयंकर दुर्घटना देखी । दुर्घटना को देखते ही वह कांप उठा। उसे प्रतीत हुआ, कि मानो उस की मृत्यु भी दुर्घटना में कभी भी हो सकती है। बस फिर क्या था । वह एक ज्योतिषी के पास पहुंचा। तथा उस से भविष्य बताने की प्रार्थना की । ज्योतिषी ने कहा, तुम्हारी मृत्यु के बहुत अवसर तो नहीं, परन्तु फिर भी सोच समझ कर ही ट्रेन चलाया करो। शनि का प्रबल योग कहीं दुर्घटना न करा दे। यह उत्तर उस के लिए संतोषजनक न था । उस के पश्चात् वह एक मनोवैज्ञानिक के पास पहुंचा। मनोवैज्ञानिक ने बताया कि मौत के भय से मन अनेक आशंकाओं से भर जाता है । अतः मौत के भय से क्या मौत टल जाएगी ? अपने मन को स्वस्थ करो। परन्तु यह उत्तर भी उसके मन को संतुष्ट न कर सका। अब वह ड्राइवर एक दार्शनिक के पास पहुंच गया। दार्शनिक ने अपनी दार्शनिक रीति से ही उस के प्रश्न का उत्तर दिया, "देखो ड्राइवर महोदय ! तुम ट्रेन चलाओगे, तो दो संभावनाएं तुम्हारे सम्मुख हो सकती हैं । या तुम गाड़ी तेज चलाओगे या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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