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संसार में तरह-तरह की वस्तुएँ आँखों से स्पष्ट दिखाई देती हैं, उनको देखते हुए भी जो कहता है कि जगत् शून्य रूप है उसका यह कथन ठीक नहीं हैं, क्योंकि जब जगत् शून्य रूप है और उसमें कुछ भी सत् नहीं है तो ज्ञान और शब्द भी असत् हुए और जब ज्ञान तथा शब्द भी असत् हैं तो यह शून्यवादी कैसे तो स्वयं यह जाता है कि सब कुछ शून्य है और कैसे दूसरों को यह कहता है कि सब शून्य है ? क्योंकि ज्ञान और शब्द के अभाव में न कुछ जाना जा सकता है और न कुछ कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त जब सब जगत् शून्यरूप है तो शून्यवादी भी शून्यरूप हुआ और जब वह स्वयं शून्य है तो वह शून्य को कैसे जानता है और कैसे शून्यवाद का कथन करता है ? अतः शून्यवादी बौद्धों का मन्तव्य भी जैनदर्शन की दृष्टि में किसी भी प्रकार से समीचीन नहीं है ।
इस प्रकार सत्ता, द्रव्य, गुण और पर्याय का विवेचन करने के पश्चात् इस विषय में जैनेतर दार्शनिकों की जो विभिन्न विचारधाराएँ हैं, उन सबका प्रतिपादन तथा परिहार ठीक प्रकार से किया गया है । अनेकात्मक वस्तु के यथार्थस्वरूप का विवेचन यदि नयवाद (सापेक्षवाद) का आश्रय लेकर किया जाए तो किसी भी प्रकार का विवाद नहीं रह जाता है, क्योंकि नयवाद के बिना वस्तु का यथार्थस्वरूप सिद्ध ही नहीं हो सकता है ।
वस्तु मीमांसा में नयों का अर्थान्वयन - जैनदर्शन में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों की एकता व समन्वय का प्रतिपादन किया गया है । किन्तु अन्य जैनेतर दर्शनों में इनमें से किसी-किसी एक को ग्रहण कर वस्तुमीमांसा की गयी है । उदाहरण के लिए सांख्य और वेदान्त वस्तु को ध्रुव व नित्य मानते हैं। वे उसमें किसी प्रकार का परिणमन स्वीकार नहीं करते, परन्तु बौद्ध दर्शन वस्तु को क्षणभंगुर एवं अनित्य मानते हैं। उनके अनुसार प्रत्येक समय में पर्याय बदल जाती है। पूर्ववर्ती क्षण में जो पर्याय है वह उत्तरवर्ती क्षण में नहीं रहती । पर्याय के साथ द्रव्य का भी अभाव हो जाता है। वस्तुतः बौद्धदर्शन की यह मान्यता पदार्थ की उत्पाद और विनाश- मूलक मान्यता को अभिव्यक्त करती है, लेकिन न्याय-वैशेषिक दर्शन गुण और क्रिया को वस्तु से पृथक् मानते हैं। इसप्रकार जैनदर्शन के उत्पाद, व्यय और ध्रुव इन वस्तुगत स्वभावों को जैनेतर दर्शनों में पृथक्-पृथक् रूप से स्वीकार किया गया है। यदि ये सभी दर्शन नयवाद की दृष्टि से सापेक्ष कथन करते तो वस्तु-स्वरूप की सम्यक् सिद्धि में कोई मतभेद नहीं रहता और ये सभी दर्शन सम्यग्दर्शन कहे जाते। यही जैनदर्शन की मान्यता का निष्कर्ष है और यही नयवाद का फलितार्थ है ।
72 :: जैनदर्शन में नयवाद
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