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________________ होते हैं। इन सभी के भेद-प्रभेदों का विस्तृत विवेचन प्रवचनसार, नियमसार आदि जैनागम ग्रन्थों से जान लेना चाहिए। इस प्रकार सत्ता द्रव्य, गुण और पर्याय का विस्तृत विवेचन हो जाने पर सांख्य आदि वैदिक दार्शनिकों द्वारा यह शंका प्रस्तुत की जाती है कि द्रव्य में विद्यमान पर्याय उत्पन्न होती है अथवा अविद्यमान पर्याय? इस विषय में सत्कार्यवादी सांख्यदर्शन का कथन है कि 'सतः सज्जायते' इस सिद्धान्त के अनुसार सत् से ही सत् की उत्पत्ति होती है, असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती अर्थात् असत् वस्तु कभी सत् नहीं हो सकती। कार्य अपने कारण में पहले से ही विद्यमान रहता है, अनुकूल कारणकलाप मिलने पर वह प्रकट हो जाता है। यदि घट अपने कारण रूप मिट्टी में पहले से ही विद्यमान नहीं रहता तो वह अनेकों व्यापारों के करने पर भी कभी सत नहीं हो सकता। अतः जो पदार्थ पहले से ही अपने कारण में अव्यक्त रूप से विद्यमान रहता है वही उससे आविर्भूत होता है, कोई नयी वस्तु कहीं से उत्पन्न नहीं होती। सब वस्तुएँ सर्वदा ही रहती हैं। वे कभी सूक्ष्म अर्थात् अव्यक्त अवस्था में और कभी स्थूल अर्थात् व्यक्त अवस्था में आ जाया करती हैं। यही अवस्था परिवर्तन जगत् में हुआ करता है। नयी वस्तु न उत्पन्न होती है और न विद्यमान वस्तु का कभी विनाश ही होता है। इसे ही सांख्यदर्शन का सत्कार्यवाद कहा जाता है। उदाहरणार्थ-तिलों में तेल पहले से ही है, उसे यन्त्र में पेलकर अभिव्यक्त कर दिया जाता है। दही में मक्खन व्याप्त है, उससे ही मथकर प्रकट कर दिया जाता है। कोई शिल्पी राम या कृष्ण, बुद्ध या महावीर की या शेर, हिरण आदि की मूर्ति बनाता है तो वह एक बड़ा पत्थर लेता है और अपने औजारों से पत्थर के अंशों को काटकर अपनी या आपकी पसन्द की मूर्ति को उसी पत्थर में से प्रकट कर देता है, बाहर से कुछ नहीं लाता। इससे यही सिद्ध होता है कि तेल, घृत, मूर्ति आदि पहले से ही उन-उन पदार्थों में विद्यमान थे, उन पर अन्य अवयवों का एक आवरण पड़ा हुआ था, उस आवरण को हटाकर उन्हें प्रकट कर दिया गया, नयी वस्तु कोई नहीं बनायी गयी। ठीक उसी प्रकार जीवादि पदार्थों में सब पर्याय . विद्यमान रहती हैं, किन्तु वे छिपी हुई हैं, इसलिए दिखाई नहीं देती। . . . सांख्य के उक्त मत से सहमत न होते हुए जैनाचार्य कहते हैं-यदि द्रव्य में पर्याय विद्यमान होते हुए भी ढंकी हुई है तो वस्त्र से ढंके हुए देवदत्त की तरह उसकी उत्पत्ति निष्फल है। जैसे देवदत्त पर्दे के पीछे बैठा हुआ है, पर्दे के हटाते ही देवदत्त प्रकट हो गया। उसको यदि कोई यह कहे कि 'देवदत्त उत्पन्न हो गया' तो ऐसा कहना व्यर्थ है, क्योंकि देवदत्त तो वहाँ पहले से ही विद्यमान था। इसी तरह यदि द्रव्य में पर्याय पहले से ही विद्यमान है और पीछे प्रकट हो जाती है तो नयवाद की पृष्ठभूमि :: 69 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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